दरअसल, मम्मी की बहुत सालों से इच्छा थी एकबार फिर बाबा वैद्यनाथधाम जाने की. जन्म के बाद उन्होंने मेरा मुंडन देवघर मंदिर में ही करवाया था. उसके बाद से वो उस मंदिर में नहीं गईं थी. इसलिए अब वो चाहती थीं कि मेरी शादी के बाद एक बार मैं अपनी पत्नी के साथ उस मंदिर के दर्शन करूं. इसके साथ ही ये भी तय हो गया कि मेरी तरह उसी मंदिर में नीलू दी के बेटे सोनू का भी मुंडन करवाया जाएगा. अब देवघर जाकर अगर वैद्यनाथ मंदिर के बाद बाबा बासुकीनाथ मंदिर का दर्शन नहीं किया तो फिर हमारी ये यात्रा बेकार होती, इसलिए देवघर के बाद बासुकीनाथ जाने की भी प्लानिंग होने लगी. तभी अनिल जीजू ने भी अपना एक और प्रस्ताव रख दिया. उनका कहना था कि जब सबलोग जा ही रहे हैं तो बासुकीनाथ से थोड़ा आगे रामपुर हाट है, वहीं से मां तारापीठ भी घूम लिया जाए.
तो इस तरह हमारे यात्रा की पूरी प्लानिंग हो गई. मम्मी – पापा के साथ मैं – सुप्रिया, अनिल जीजू – नीलू दी के साथ उनके तीन बच्चे स्नेहा – ख़ुशी और सोनू, बिक्रमगंज से जुली दी – धर्मेन्द्र जीजू के साथ शुभि – छोटी और छोटू यात्रा के लिए हम इतने लोग तैयार थे, इसी बीच नागपुर से रिद्यांश के साथ तृप्ति और प्रणय जीजू के आ जाने से हमारा उत्साह और बढ़कर डबल हो गया. बस पैकिंग शुरू हो गई. ट्रेनों में रिजर्वेशन के साथ ही तारापीठ में ठहरने के लिए ऑनलाइन ओयो एप से होटल में 5 कमरे भी बुक करा लिए. इधर अनिल जीजू ने अपने एक परिचित के माध्यम से देवघर में भी रूम बुक करा लिया था. तो इस तरह हम अब बिलकुल तैयार थे 12 ज्योतिर्लिंगों में से नौवें वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए.
बाबाधाम, वैद्यनाथ धाम समेत कई और नामों से जाना जाने वाला झारखण्ड का शहर देवघर पवित्र हिंदू तीर्थ स्थलों में से एक है. ऐसी मान्यता है कि भोलेनाथ यहां आने वाले सभी भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करते हैं इसलिए इस शिवलिंग को ‘कामना लिंग’ भी कहते हैं.
देवघर जाने के लिए 16 जून 2019 को पटना जंक्शन से जसीडीह जंक्शन के लिए हमें जनशताब्दी एक्सप्रेस ट्रेन पकड़नी थी और सबसे बड़ी बात सुबह साढ़े 5 बजे हमारी ट्रेन खुलने वाली थी. ऐसे में सुबह साढ़े चार – पौने पांच बजे तक किसी तरह घर से पटना जंक्शन के लिए निकल जाना हमलोगों के लिए बड़ी चुनौती थी. पर ये देख आश्चर्य हुआ की आम दिनों में जो बच्चे 9 – 10 बजे तक सोए रहते थे वो भी सुबह 3 बजे सिर्फ एक आवाज पर जग गए थे. जल्दी – जल्दी फ्रेश होकर साढ़े चार बजे ही दो गाड़ियों से स्टेशन की ओर निकल पड़े. गर्मी का मौसम होने के कारण धीरे – धीरे उजाला होने लगा था. पटना जंक्शन पर हमारी गाड़ी लगी थी, और रिजर्वेशन में हमसब की चेयरकार वाली सीटें दो बोगियों में बिखरी थी. मतलब आधे लोग डी 12 तो आधे लोगों की सीटें डी 11 में थी. कुछ देर में गाड़ी खुलने ही वाली थी, तब तक सभी सामानों को एडजस्ट कर हम अपनी – अपनी कुर्सियों से चिपक चुके थे. ट्रेन खुल चुकी थी और इधर सुनहरी धूप भी ट्रेन की खिड़कियों से आने लगी थी. झाझा के बाद जैसे ही पहाड़ दिखने शुरू हुए तो बच्चों ने खिड़की ही पकड़ ली. चारों तरफ हरे – भरे पहाड़ सब का मन मोह रहे थे. जून का महीना और गर्मी के इस मौसम में भी उन पहाड़ों पर धुंध देख गंगटोक की याद आ गई. खिड़की से बाहर तेजी से भागते प्रकृति के उन खुबसूरत दृश्यों को अपने मोबाइल में कैद करते रहे और इधर हमारी पटना हावड़ा जनशताब्दी ट्रेन बाढ़ – मोकामा – जमुई – झाझा होते हुए कब जसीडीह रेलवे जंक्शन पहुंच गई, पता भी नहीं चला.
जसीडीह रेलवे स्टेशन पूर्वी रेलवे जोन के आसनसोल डिवीजन में आता है और सबसे व्यस्त रेलवे स्टेशनों में से एक है. ये देश के प्रमुख हावड़ा – पटना – दिल्ली लाइन से जुड़ा हुआ है. इस स्टेशन को बाबाधाम जाने का प्रवेश द्वार माना जाता है. वैद्यनाथ धाम और बासुकीनाथ में जल अर्पण करने वाले श्रद्धालु यहीं से होकर जाते हैं. इसी कारण श्रावण मास के दौरान लगने वाले श्रावणी मेले में जसीडीह स्टेशन पर कांवरियों की खूब भीड़ उमड़ती है. जसीडीह रेलवे स्टेशन से देवघर की दूरी करीब 7 किलोमीटर है. यहां से जाने के लिए आपको लोकल ट्रेन से लेकर टैक्सी – ऑटो आसानी से मिल जाएंगे.
जब हम इस स्टेशन पर उतरे, तो प्लेटफॉर्म पर काफी चहलपहल थी. पर हमें आश्चर्य हुआ कि ईस्टर्न रेलवे का इतना महत्वपूर्ण स्टेशन होते हुए भी यहां यात्री सुविधाएं नदारद थी. कई जगहों पर इधर – उधर कचरा फैला था. स्टेशन से अभी बाहर निकला भी नहीं था कि ऑटो वाले आकर हमें अपने ऑटो में बैठाने धमक पड़े थे. स्टेशन के बाहर का नजारा तो और ज्यादा हैरान करने वाला था. पार्किंग एरिया में भी कई जगहों पर अवैध रूप से गाड़ियां खड़ी थी. बेतरतीब ढ़ंग से बहुत सारे ऑटो लगे थे जिनके बाहर निकलने का भी रास्ता नहीं बन पा रहा था. ऐसे में हमलोगों को चलने में काफी परेशानी हुई. यहां से देवघर जाने के लिए दो ऑटो हमने रिजर्व कर लिया. हमें शहर के बजरंगी चौक जाना था, क्योंकि यहीं होटल महाराजा में हमारे रूम बुक थे. गाड़ियों की भीड़ भाड़ को पार करते किसी तरह हमारी ऑटो स्टेशन से मेन रोड पर आई और फिर देवघर शहर की ओर फर्राटा भरने लगी. हमारे लिए ये शहर बिलकुल नया था, ऐसे में ऑटो में बैठ हम यहां के नजारों का आनंद लेने लगे.
कुछ ही देर में देवघर के बजरंगी चौक के पास आकर ऑटो रुक गई. अब तक 11 बज चुके थे और बाहर इतनी तेज धूप और गर्मी थी कि हम होटल महाराजा में पहले से बुक चार कमरों में कैद हो गए. होटल के बड़े – बड़े कमरों ने हमें काफी खुश कर दिया था. रूम का इंटीरियर भी बढ़िया था. दीवारों पर लगे शीशे का डिजाईन इतना प्यारा था जिसे देख हम सबने वहां अपनी सेल्फी क्लिक की. इसी बीच अपने एक रूम की एसी दगा दे गई. एक तो गर्मी से बेहाल ऊपर से एसी ख़राब, फिर क्या था तुरंत होटल के रिसेप्शन पर फोन कर कहा, कुछ ही देर में होटल का स्टाफ आया और फिर उसे ठीक किया. तब हमारी भी जान में जान आई.
सुबह से ट्रेन का सफ़र और गर्म मौसम के कारण बहुत थकान लग रही थी. इसलिए हमसब ने सोचा कि पहले फ्रेश हो जाते हैं फिर बाहर खाने को निकलेंगे. तब तक होटल वाले को चाय का आर्डर भी दे दिया. नहाने के बाद अब अच्छा लग रहा था. चाय की चुस्कियों के बीच ये प्लानिंग हुई कि इतनी गर्मी और धूप में अभी कहीं नहीं घूमेंगे, बल्कि बाहर से खाना खाकर हमलोग वापस होटल आ जाएंगे और फिर रूम में ही आराम किया जाएगा. मंदिर के दर्शन कल सुबह करेंगे और फिर बासुकीनाथ के लिए रवाना हो जाएंगे. वहीं आज देवघर शहर घूमेंगे. यहां से थोड़ी दूरी पर ही नंदन पहाड़ है जो बच्चों के घूमने के लिए काफी मजेदार जगह है.
तो अब तैयार होकर हम भरी दुपहरी में देवघर के बाजारों में भटक रहे थे. तेज धूप और गर्म हवाओं के बीच घूमने का एक अलग ही मजा है और शायद इसी कारण बाजारों में भीड़ लगी थी. कई लोग फूल – माला पहने, माथे पर टीका लगाए शायद अपने होटल लौट रहे थे, फल – सब्जियों के ठेलों पर भी लोग जुटे थे. कपड़ों और खिलौनों की दुकानें भी सजी थी. उसी संकरी रोड पर बाइक – रिक्शे – साइकिल वालों की ही अलग चिल-पों मची थी. इनसब के बीच से होते हुए हम भी अपनी पूरी बटालियन के साथ आजाद चौक से गुजर रहे थे.
आगे जब टावर चौक की ओर बढ़े तो इधर ही हमें होटल नीलकमल दिखा, बाहर से ये हमें ठीकठाक लगा तो हमसभी अंदर चले गए. खाने की अधिकांश टेबल भरी हुई थी. हमलोगों ने भी तीन टेबलों पर अपना कब्ज़ा जमा लिया. मेनू देखा तो ये साउथ से लेकर नार्थ हर फ़ूड आइटम्स प्रोवाइड कर रहे थे. हमलोगों ने भी अपनी – अपनी पसंद की चीजें आर्डर कर दी. भूख इतनी जोर से लगी थी कि जैसे ही हमारे सामने खाया आया सब उसपर टूट पड़े.
खाना खत्म कर बाहर निकले तो यहां हमारी नजर शहर की पहचान टावर चौक के वाच टावर की ओर पड़ी. इसे देवघर का ‘हार्ट ऑफ द सिटी’ कहा जाता है. ये अंग्रेजों के शासनकाल में बना शहर का एक एतिहासिक धरोहर है, जो दिनभर लोगों से गुलजार रहता है. हालांकि इस टावर में लगी घड़ियां आपको सही समय तो नहीं बतातीं, फिर भी इसने अपने दामन में कई इतिहास समेट रखा है. देवघर आने वाले लोग टावर चौक पर रुक कर चाय की चुस्कियां लिए बगैर नहीं लौटते. सुबह भोलेनाथ के दर्शन करने भक्तों का झुंड भी यहीं से होते हुए मंदिर की ओर जाता है. हमलोगों ने भी यहां खड़े होकर इस वाच टावर संग अपनी सेल्फी ली और फिर निकल पड़े होटल की ओर.
एसी कमरों में दो – तीन घंटे की आराम के बाद अब हम तैयार थे देवघर शहर घूमने के लिए. जहां हम ठहरे हुए थे वहां से नंदन पहाड़ की दूरी करीब 5 किलोमीटर की थी और गाड़ी से करीब आधे घंटे में हमलोग पहुंच चुके थे. देवघर के पश्चिमी किनारे पर स्थित शहर का ये सबसे फेमस पिकनिक स्पॉट है. इस पहाड़ी पर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई है. ऊपर ही टिकट काउंटर है, अंदर जाने के लिए दस रुपए प्रति व्यक्ति टिकट लगता है. शाम के वक़्त ये पहाड़ी रंगीन रौशनियों से नहा उठा था.
पार्क और यहां लगे पेड़ – पौधे – फव्वारे सभी रंग-बिरंगे लाइटों से जगमग कर रहे थे. नंदन पहाड़ से पूरे शहर के साथ उगते और डूबते सूर्य को देखना काफी सुंदर लगता है. यहां एक शिव मंदिर और एक नंदी मंदिर भी है. पहाड़ के ऊपर बना पार्क बच्चों को खूब पसंद आता है.
यहां झुला से लेकर बूट हाउस, लाफिंग हाउस, भूत घर, मछली घर आदि मनोरंजन की कई चीजें हैं. जिसका बच्चों ने जमकर लुत्फ़ उठाया. बड़े से झूले में पहले तो जमकर मस्ती हुई फिर टॉय ट्रेन में बैठ छुक-छुक चलती ट्रेन का मजा लिया, बच्चों के लिए घोस्ट हाउस के अंदर अंधेरे में जलती – बुझती लाल रौशनी में अचानक सामने आ जाने वाले नकली भूत को देखना काफी रोमांचक रहा. बूट हाउस के अंदर जाकर भी हम सबने जमकर तस्वीरें खिंचवाई.
फिर बैटरी से चलने वाली कार में भी रिद्यांश और सोनू ने ड्राइविंग का खूब मजा लिया. सच में ये जगह हमें इतनी मजेदार लगी कि यहां घूमते – घूमते कब दो – तीन घंटे बीत गए, पता भी नहीं चला. अब हमें लौट कर वापस होटल में आना था. यहां नीचे से ऊपर आपको खाने – पीने की कई दुकानें भी मिल जाएंगी. ऐसे में लौटने के दौरान नीचे उतर कर हमलोगों ने भी खूब आइसक्रीम खाई. घूमते – फिरते और खाते – पीते वापस होटल पहुंचने में हमें रात 10 बज गए. कल सुबह अपने आराध्य महादेव के दर्शन करने थे. हर साल सावन में बाबा वैद्यनाथ के स्वादिष्ट प्रसाद खाने को तो मिल जाते थे, पर भगवान के दर्शन, उनके बुलावे से वंचित रह जाता था. इसलिए मन बड़ा उत्साहित था. सावन में तो नहीं, पर उससे पहले जून में ही महादेव ने हमें अपने पास बुला लिया था.
सुबह जल्दी – जल्दी तैयार होकर होटल से हमसभी मंदिर जाने के लिए निकले. गूगल मैप ने पहले ही बता दिया था बजरंगी चौक से मंदिर ज्यादा दूर नहीं, इसलिए हमलोग पैदल ही निकल पड़े. घुमावदार गलियों और फूल – माला, पूजा सामग्रियों की दुकानों से गुजरते हुए करीब 20 – 25 मिनट में हम बाबाधाम मंदिर के सामने हाथ जोड़े खड़े थे. मन में एक असीम श्रद्धा का संचार हो रहा था. आखिर हो भी क्यों न, जहां साक्षात् शिव विराजते हैं उस पवित्र जगह के दर्शन हो रहे थे.
मंदिर परिसर में ही हमें हमारे क्षेत्र के पंडा मिल गए. इस मंदिर में आपको कई सारे पंडे मिलेंगे. यहां की यही तो खासियत है, आप चाहे किसी जगह से आएं. अगर आपको अपने पुश्तैनी पंडे का नाम याद है तो वो बताएं, नहीं मालूम तो अपने गांव – शहर या राज्य के आधार पर आपको आपके पंडे मिल जाएंगे. आपके पंडा का मतलब उस पंडे का वंशज जिसके पास आपके पिता – दादा – परदादा आते थे, उसी पीढ़ी के पंडे आपको इस मंदिर में पूजा कराएंगे. जिस तरह ये मंदिर काफी पुराना है, ठीक वैसे ही यहां की ये व्यवस्था भी उतनी ही पुरानी है. अपने पूर्वजों से जुड़े पंडित – पुरोहितों से पूजा करवाने का काफी महत्व होता है. इन पंडों के पास पीढ़ियों – दर – पीढ़ियों के रिकॉर्ड होते हैं.
तो भोलेनाथ के दर्शन से पहले मंदिर परिसर में हमारे पुजारी ने हमसभी को एक जगह खड़े कर मंत्र आदि पढ़ पूजा-संकल्प करवाया. पटना से हमलोग अपने साथ शिवलिंग पर चढ़ाने गंगा जल लाए थे, पर उन्होंने ये कह कर मना कर दिया कि पटना में गंगा नदी उत्तरवाहिनी नहीं है, इसलिए सिर्फ सुल्तानगंज का ही गंगाजल चढ़ता है, अगर वो नहीं है तो फिर मंदिर से ही हमें जल लेना होगा. बड़े – बड़े डिब्बों में पानी भरकर मंदिर में ही एक व्यक्ति बैठा था, उससे हमारे पंडे ने प्लास्टिक के छोटे-छोटे लोटे में पानी लेकर हमसभी को पकड़ाया, साथ ही ये हिदायत भी दी कि मंदिर के अंदर जाइएगा तो अपने पर्स – मोबाइल इन चीजों पर भी ध्यान रखियेगा. साथ ही जल चढ़ाने का तरीका बताते हुए कहा कि इस लोटे का आधा जल ही शिवलिंग पर अर्पित कीजिएगा, आधा जल मां पार्वती को चढ़ाना होता है.
अब हम तैयार थे अपने आराध्य भोले भंडारी से मिलने के लिए, लेकिन हमें क्या पता कि महादेव का दर्शन उनके भक्तों को इतनी जल्दी और आसानी से नहीं मिलने वाला था. मंदिर से बाहर निकल कर आगे कुछ दूर सीढ़ियों से ऊपर एक लंबे पुल पर चढ़े, फिर वहां से हमारी लाइन शुरू हो गई. 15 – 20 मिनट चलने के बाद पुल से नीचे उतरे और मंदिर परिसर में बने एक बड़े से हॉल में पहुंचे. जहां भक्तों की भीड़ उमड़ी थी और बोलबम के नारों से पूरा मंदिर परिसर गूंज रहा था. हालांकि यहां स्टील की कई घुमावदार रेलिंग बनी थी. जिसके अंदर ही सभी फूल – माला, बेलपत्र, धतूरा और गंगा जल लेकर भोलेनाथ का जयकारा लगा रहे थे. हम भी इसी कतार में खड़े हो गए. भगवान से मिलने के लिए यहां कई लोगों को शार्टकट तरीका भी अपनाते देखा. जो दूसरे तरफ से आकर सीधे स्टील की रेलिंग के अंदर घुसकर पहले से खड़े लोगों के साथ आकर खड़े हो जा रहे थे.
बहरहाल, हमारे कुछ घंटों की इस यात्रा के बाद अब वो घड़ी भी आ गई थी जब भोलेनाथ हमें दर्शन देने वाले थे. छोटे से इस मुख्य मंदिर के अंदर काफी धक्कामुक्की हो रही थी. सभी गिरते – पड़ते, भागते – भगाते किसी तरह शिवलिंग तक पहुंचना चाहते थे, उसे छूकर भगवान से अपना हर मनोरथ पूरा करने का आशीर्वाद मांग रहे थे और मैं, भगवान के इस छोटे और अंधेरे कमरे में भक्तों की भीड़ में सबसे पीछे खड़ा था. मेरी आंखें तो अपने आराध्य को खोज रही थी. फूल – माला, बेलपत्र – धतूरा और गंगाजल – दूध इन सबके बीच महादेव छिपे थे. जैसे – तैसे आगे आकर मैंने भी जल्दी – जल्दी लोटे में भरे आधे गंगाजल से शिवलिंग का अभिषेक कर उन्हें स्पर्श किया. 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक नौवें ज्योतिर्लिंग के सामने अभी हाथ जोड़ उन्हें प्रणाम कर ही रहा था तभी अचानक पीछे से बाहर निकलने वाले लोगों का झुंड आ गया, जिसके साथ – साथ मैं भी देखते – ही – देखते मंदिर के उस गर्भगृह से बाहर निकल आया.
महादेव से ऐसे दूर होने पर मन में एक अजीब सी बेचैनी थी. आखिर हो भी क्यों न, घंटों के इंतजार के बाद भी भक्त को भगवान से मिलने के लिए बस कुछ झण ही जो मिले थे. पर कोई शिकायत नहीं, इन थोड़े वक़्त में ही हमने अपने आराध्य का सामीप्य पाया था. महादेव के समीप जाना, चंद सेकंड के लिए उनका सानिध्य पाना भी हमारे लिए बहुत था. अब मां पार्वती के मंदिर की ओर बढ़ रहा हूं, चारों तरफ बोल बम का संगीतमय स्वर सुनाई दे रहा.
एक-एक कर सभी मंदिरों में माथा टेकने के बाद अब बारी थी नीलू दी के बेटे सोनू और तृप्ति के बेटे रिद्यांश के मुंडन की. पापा – जीजू ने अपने पंडे से इसकी बात पहले ही कर रखी थी, हमलोगों के मंदिर से आते ही उन्होंने मुंडन के लिए पूरा इंतजाम कर दिया था. दो हजाम भी तैयार बैठे थे. मंदिर परिसर में ही एक जगह रिद्यांश और सोनू का मुंडन संस्कार हुआ. बाल कटवाने के दौरान दोनों इतना रोये कि पूछिए मत.
अब इसके बाद बाबा वैद्यनाथ और माता पार्वती मंदिर के बीच हमें गठबंधन का एक और धार्मिक अनुष्ठान करना था. देवघर के इस मंदिर की यही तो विशेषता है. यहां शिव अकेले नहीं, बल्कि अपनी शिवा के साथ, अपनी शक्ति को पूर्णता से समेटे वे यहां विराजमान हैं. पुराणों के अनुसार सती माता का ह्रदय यहीं गिरा था. इसलिए ये एक महान शक्तिपीठ भी है. पूरे देश में बाबाधाम ही एकमात्र ऐसा स्थल है, जहां ज्योतिर्लिंग के साथ शक्तिपीठ भी स्थापित है.
इन्हीं दोनों मंदिरों के गठबंधन करने की एक पुरानी परंपरा यहां रही है. इसके तहत श्रद्धालु भगवान शिव और मां पार्वती के मंदिरों के दोनों शिखरों को लाल धागे से जोड़ते हैं. विवाहित जोड़ों के लिए इस अनुष्ठान का काफी महत्व होता है. जो देवघर के अलावे कहीं और नहीं किया जाता. ऐसा कहा जाता है कि इस परंपरा को पूरा करने से विवाहित जोड़ों पर महादेव और माता पार्वती की विशेष कृपा बनी रहती है.
हमारे पंडे ने हमलोगों को भी ये अनुष्ठान पूरा करवाया. पवित्र लाल धागों को हाथों में लपेटे पहले पुजारियों ने हमें संकल्प दिलवाया, फिर उसकी पूजा कर मंदिर के शिखर पर मौजूद व्यक्ति की ओर उसे उछाल दिया. एक छोर में बांधने के बाद अब उसका दूसरा छोर बांधने से पहले हमलोगों को उस धागे का स्पर्श करवाया गया, फिर उसमें से कुछ धागे निकाल कर आशीर्वाद के तौर पर हमें देते हुए बाकी बचे डोर को मंदिर के दूसरे शिखर से बांध दिया गया. सभी पूजा – अनुष्ठान के बाद अब हमलोग मंदिर से बाहर निकल गए.
करीब दस बज चुके थे, और घंटों की पूजा के बाद अब थोड़ी – थोड़ी सी थकान लगने लगी थी, इसलिए मंदिर से लौटते वक़्त गली में देखा एक जगह चूल्हे पर केतली चढ़ी हुई थी. उसमें खौलते चाय को देख हमारे कदम वहीँ ठिठक गए. सब लोगों ने वहीं पहले थोड़ा – थोड़ा प्रसाद खाया, फिर गर्म चाय की चुस्की लेने लगे. मंदिर के पास जिस गली में हमलोग चाय पी रहे थे, वहां प्रसाद की कई दुकानें थी. देवघर में प्रसाद के तौर पर पेड़ा, इलायची दाना और चूड़ा मिलता है. बाबाधाम आने वाले लोग पूजा के बाद काफी मात्रा में ये प्रसाद खरीदते हैं ताकि जब वो अपने घर लौटे तो सबको बांट सकें. हमलोगों को भी प्रसाद खरीदना था, पर हमलोगों ने यहां से प्रसाद की खरीदारी नहीं की, ऐसा भी नहीं था कि वापस लौटते वक़्त हमलोग फिर देवघर आने वाले थे. देवघर मंदिर में पूजा करने के बाद भी हमने वहां से प्रसाद क्यों नहीं लिया, आखिर हमारी प्लानिंग क्या थी. ये आपको हमारे अगले पोस्ट में पता चल जाएगा.
अभी तो बस, भगवान भोलेनाथ के दर्शन हो गए थे और इसी के साथ हमारे देवघर यात्रा का पहला पड़ाव पूरा हो चुका था. पर हमारी ये पूजा अभी अधूरी ही थी. क्योंकि बासुकीनाथ मंदिर में जलाभिषेक करना बाकी था. ऐसा कहा जाता है कि बाबाधाम के बाद बासुकीनाथ मंदिर के दर्शन करना जरुरी है, अगर आप ऐसा करते हैं तभी आपकी पूजा सार्थक और पूर्ण होगी. तो गरमागरम चाय पीने के बाद अब हमलोग वापस होटल लौट गए. यहां से हमें अब अपने अगले पड़ाव बाबा बासुकीनाथ मंदिर की ओर जाना था. इसलिए जल्दी – जल्दी सारे सामानों की पैकिंग की और होटल से चेक आउट कर एक गाड़ी से देवघर से बासुकीनाथ के सफ़र पर निकल पड़े.
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