पटना से कोलकाता सफ़र का ये तीसरा और अंतिम भाग है. इससे पहले यात्रा की पहली और दूसरी क़िस्त में हमने आपको दीघा के समुंद्री तटों और वहां के दर्शनीय स्थलों के बारे में बताया था. कोलकाता शहर से जुड़ी अपनी यादों, और वहां विक्टोरिया मेमोरियल, कालीघाट मंदिर से लेकर देर रात सड़कों पर चली घुमक्कड़ी के अनुभव के बाद अब इस आखिरी पोस्ट में पढ़िए दक्षिणेश्वर काली मंदिर, बेलूर मठ समेत कई और जगहों की हमारी यात्रा वृतांत. जैसा की आपको इससे पहले वाले पोस्ट में बता चुका हूं कि दीघा से लौटने के बाद हमलोग कोलकाता के आनंद लोक गेस्ट हाउस में ठहरे थे.  
…कोलकाता में वो हमारी आखिरी रात थी और आनंदलोक गेस्ट हाउस के कमरे में उस रात नींद हमारी आंखों से कोसों दूर थी. इंतजार था तो बस अगली सुबह का, जब हमें देवी भगवती के सबसे शक्तिशाली रूप मां काली के दर्शन होने वाले थे. वैसे तो इनके तेज का सूर्य सारे संसार में चमकता है पर कोलकाता वो धरती है जिसके कण – कण में मां काली हैं. कोलकाता से मां काली का संबंध अद्भुत है. देवी काली अपने सबसे जागृत और वैभवशाली रूप में यहां विराजमान हैं.
अहले सुबह दक्षिणेश्वर काली मंदिर जाना था. वहीं मंदिर, जिसके पुजारी थे रामकृष्ण परमहंस. जिन्होंने मां काली की कठोर साधना की, जिसके बाद 20 साल की आयु में ही मां ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिए थे. कोलकाता के अपने अंतिम दिन के सफ़र की शुरुआत हमें इसी प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर से करनी थी. सुबह होटल में जल्दी – जल्दी फ्रेश होकर हमलोग मंदिर जाने के लिए तैयार हुए. कोलकाता में जहां हमलोग ठहरे हुए थे वहां से मंदिर काफी दूर था, इसलिए हमलोगों ने उबर टैक्सी बुक कर ली थी, जिसने हमें डायरेक्ट मंदिर तक पहुंचा दिया.

25 एकड़ क्षेत्र में फैला ये मंदिर कोलकाता में उत्तर की ओर विवेकानंद पुल के पास स्थित है. इस मंदिर के निर्माण की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. बात उस वक़्त की है जब हमारा देश गुलाम था. उस दौरान पश्चिम बंगाल में रानी रासमणि नाम की एक अमीर विधवा महिला रहती थी. जब उनकी उम्र ढलने लगी तो उन्हें तीर्थ यात्रा का विचार आया. देवी मां में उनकी परम आस्था थी, इसलिए उन्होंने सोचा कि वो अपनी यात्रा की शुरुआत वाराणसी से करेंगी और वहीं कुछ दिन देवी का ध्यान करेंगी. तब कोलकाता से वाराणसी आने – जाने के लिए रेल की सुविधा नहीं थी. गंगा नदी ही इन दोनों शहरों को जोड़ती थी. ऐसे में रानी रासमणि का काफिला भी नाव से निकलने की तैयारी में था. लेकिन यात्रा के एक रात पहले ही रानी रासमणि के साथ अजीब घटना हुई.
कहा जाता है कि उस रात उन्हें सपने में मां काली ने दर्शन दिए और कहा कि तुम्हें वाराणसी जाने की जरुरत नहीं है. तुम यहीं कोलकाता में गंगा किनारे मंदिर निर्माण कर मेरी प्रतिमा स्थापित करो. जिसके बाद रानी रासमणि ने वाराणसी की यात्रा रद्द कर मंदिर निर्माण की तैयारी में जुट गईं. साल 1847 में निर्माण कार्य शुरू होने के आठ सालों बाद यानि सन 1855 में ये दक्षिणेश्वर मंदिर बनकर तैयार हुआ. आज इस मंदिर के दर्शन करने और मां काली का आशीर्वाद लेने दूर – दूर से हजारों भक्त रोज यहां आते हैं. मंदिर के मुख्य द्वार से दाखिल होते मां के उन भक्तों में हमलोग भी शामिल थे, जिन्हें मां के दर्शन का सौभाग्य मिल रहा था.
हमारे इस घुमक्कड़ी का भी ले आनंद : सागर की लहरों से भींगता जहां तन –मन, चलो घूम आएं वो दमन…
यह मंदिर दो मंजिला है और नौ गुम्बदों पर बना हुआ है. इसी में करीब सौ फीट ऊंचे गर्भगृह में मां काली की सुंदर मूर्ति है. इसके साथ ही भगवान कृष्ण और राधा मंदिर के अलावे भगवान शिव को समर्पित 12 मंदिर हैं. गंगा नदी के तट पर इतने बड़े और सुंदर मंदिर को देख एक सुखद अनुभूति हो रही थी.  यहां मां के दर्शन से पहले चप्पल – जूतों के साथ मोबाइल – पर्स – कैमरे सब जमा करना पड़ता है. इसके लिए कई काउंटर बनाये गए हैं. हमलोगों ने भी प्रसाद लेने के बाद सबकुछ जल्दी – जल्दी जमा कर मंदिर के अन्दर प्रवेश कर गए. मंदिर बाहर से जितना बड़ा है अन्दर भी वैसा ही खुला – खुला है. बीच चबूतरे पर मां काली का विशाल मंदिर है. इसके अंदर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई है.
मंदिर के अंदर सबसे अच्छी बात हमें ये लगी कि यहां पंडों का खौफ नहीं था. दर्शन से लेकर पूजा करने की स्वतंत्रता, सब कुछ व्यवस्थित. कहीं कोई दान उगाही वाली बात नहीं. बस मंदिर की यही बात हमें चौंका रही थी कि इतने बड़े और प्रसिद्ध मंदिर में ‘पंडा प्रथा’ नहीं है, वरना, देश के अन्य मंदिरों में पंडे कैसे श्रद्धालुओं से दान के नाम पर लूटते हैं ये सब जानते हैं.
सुबह ज्यादा भीड़ भी नहीं थी. इसलिए लंबी कतारों में ज्यादा देर नहीं लगना पड़ा, हमलोगों ने बड़े आराम से मां काली के दर्शन किए. फिर यहां एक लाइन में बने भगवान शिव के सभी मंदिरों में गए और वहां शिवलिंग में अपना माथा टेका. मंदिर से जब बाहर निकले तब तक दोपहर हो चुकी थी. काउंटर से हमलोगों ने अपना मोबाइल वापस लिया और फिर शुरू हो गई हमारी फोटोग्राफी.
मंदिर परिसर में ही एक तरफ गंगा घाट भी है, जहां कई लोग नहा रहे थे. हमने देखा कि उधर से भी मंदिर जाने का एक दूसरा रास्ता बना था, स्नान के बाद कई लोग उसी तरफ से मंदिर के अन्दर जा रहे थे. सामने बहती गंगा नदी को देख मन प्रफुल्लित हो उठा.
सामने नदी पर बना विवेकानंद पुल नजर आ रहा था. इस पुल को बाली ब्रिज भी कहते हैं. साल 1932 में बना ये पुल हावड़ा के बाली क्षेत्र को कोलकाता में दक्षिणेश्वर क्षेत्र से जोड़ता है. गंगा में चलती नाव, तो वहीं नदी के ऊपर बना विवेकानंद पुल, जिसपर तेज रफ़्तार से दौडती गाड़ियां और ट्रेन, एक बेहतरीन व्यू दे रहे थे. इन खुबसूरत नज़रों को कैमरे में कैद करते हुए हमलोग आगे बढ़े.
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मंदिर परिसर में ही इस मंदिर का निर्माण कराने वाली रानी मां रासमणि की प्रतिमा लगी हुई है. मंदिर के पुजारी रहे स्वामी रामकृष्ण परमहंस का कमरा भी यहां दर्शनीय है. जहां उनके पलंग सहित कई चीजों को स्मृति चिन्ह के रूप में संजो कर रखा गया है. उनके कमरे में हमलोग भी काफी देर बैठे रहे. इस दौरान एक अलौकिक शक्ति महसूस हो रही थी. जमीन पर बैठ मन अध्यात्मिक ऊर्जा से भर उठा था. दक्षिणेश्वर काली मंदिर के दर्शन के बाद ऐसा लगा जैसे कोलकाता आना सार्थक हो गया.

मंदिर परिसर में ही कई दुकानें भी हैं, जहां श्रृंगार की चीजें जैसे सिंदूर, बिंदी, शंखा – पोला चूड़ियाँ समेत सजावट के भी कई सामान मिलते हैं. यहीं से हमलोगों ने भी खरीदारी की. सुबह से हमलोगों ने भी कुछ नहीं खाया था तो मां के दर्शन कर सबसे पहले मंदिर परिसर स्थित एक होटल में गए. वहां पूरी – छोला के साथ लस्सी पीने का मजा लिया.
दक्षिणेश्वर काली मंदिर के बाद अब हमारी बारी बेलूर मठ घूमने की थी. यहां से बेलूर मठ जाने का सबसे अच्छा, सस्ता और मजेदार साधन आपको नाव मिलेगा. इसे यहां फेरी सर्विस भी कहा जाता है. दक्षिणेश्वर से बेलूर जाने के लिए आपको यहां  हर आधे – एक घंटे पर नाव की सुविधा मिल जाएगी. हमलोग भी टिकट लेकर एक पुलनुमा रास्ते की ओर बढ़ गए.
धीरे – धीरे भीड़ बढ़ती गयी. कुछ देर इंतजार के बाद स्टीमर जैसी बड़ी नाव आकर रुक गयी. उसके आते ही सब उसमें जाने के लिए दौड़ पड़े. देखते ही देखते जितनी सीटें थी सब फुल हो गयी. थोड़ी देर बाद हमारी नाव गंगा की लहरों में हिचकोले खाते आगे की ओर बढ़ चली. धीरे – धीरे दक्षिणेश्वर काली मंदिर हमारी आंखों से ओझल हो रहा था.
सबसे मजेदार अनुभव तो बाली ब्रिज यानी विवेकानंद पुल के पास आया. हमारी नाव ठीक उस सेतु के नीचे थी. और ऊपर ट्रेन से लेकर अन्य गाड़ियां दौड़ रही थी. कोलकाता में गंगा नदी पर ये हमारी पहली नाव की सवारी थी, ऐसे में इन यादों को संजोने के लिए हमने भी ढेर सारी तस्वीरें अपने मोबाइल से ली. एक – एक पल को हम जीभर कर एंजॉय कर रहे थे. और इनसब के बीच प्रदीप जीजू हमें एक मंझे हुए टूर गाइड की तरह विवेकानंद पुल, दक्षिणेश्वर मंदिर, बेलूर मठ समेत कोलकाता की कई और जानकारियां भी देते जा रहे थे.
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हावड़ा जिले में गंगा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित बेलूर मठ करीब चालीस एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है. यहां हर धर्म को मानने वाले लोग आते हैं. यहां तक कि जिन्हें धर्म में कोई रूचि नहीं है, वे भी शांति प्राप्त करने इस तीर्थ स्थल पर आते हैं. वैसे तो यहां के बारे में काफी कुछ किताबों में पढ़ रखा था पर जिस तरीके से प्रदीप जीजू हमें इस जगह के बारे में बता रहे थे, मुझे बहुत अच्छा लग रहा था. इस कारण मैं भी ठीक वैसे ही रियेक्ट कर रहा था जैसे मैं यहां के बारे में बिलकुल कुछ भी नहीं जानता हूं.
नाव अपनी गति से लहरों को काटते आगे बढ़ रही थी. दूर से ही मठ की इमारतें नजर आ रही थी और इधर मैं जीजू की बातों में खोया हुआ था. वो बता रहे थे यहीं श्री रामकृष्ण देव के शिष्य स्वामी विवेकानंद ने अपने जीवन का अंतिम दिन गुजारा था. स्वामी विवेकानंद ने जिस कक्ष में महासमाधि ली, उसे यहां सुरक्षित रखा गया है. इसके साथ ही यहां रामकृष्ण परमहंस, मां सारदा देवी और स्वामी विवेकानंद के मंदिर भी हैं, जहां उनकी अस्थियां रखी हुई हैं.
नाव से गंगा घाट उतरने के बाद हम पैदल ही बेलूर मठ की ओर चल पड़े. रास्ते में कई और लोग भी उधर ही जा रहे थे. कड़ी धूप में पैदल चलते हुए जब हम थक गए तो एक जगह रुक कर फ्रूट सलाद और ठंडे पानी से गला तर कर लिए और फिर निकल पड़े आगे की ओर.

बेलूर मठ पहुंचते ही मैं सबसे पहले इसकी विशालता देख हैरान हो गया. मुझे यहां की हरियाली और यहां का खुला – खुला परिसर काफी अच्छा लगा. इस मठ की एक और खासियत ये है कि यहां आपको मंदिर से लेकर मस्जिद और चर्च भी मिलेंगे. इसके साथ ही यहां संग्रहालय और शैक्षणिक संस्थान भी हैं. अगर आप भी यहां आते हैं तो आपको यहां घूमने – देखने के लिए बहुत कुछ मिलेगा.
 
इन दर्शनीय स्थानों में श्री रामकृष्ण मंदिर (यहीं स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पवित्र अस्थि अवशेष स्थापित हैं), पुराना मंदिर, स्वामी विवेकानंद कक्ष ( जहां विवेकानंद रहते थे और यहीं साधना में वो लीन हुए), स्वामी ब्रह्मानंद मंदिर ( स्वामी ब्रहमानंद भी रामकृष्ण परमहंस के 16 शिष्यों में से एक थे और इनका स्थान विवेकानंद के बाद आता है. जिस स्थान पर उनका अंतिम संस्कार हुआ वहीं ये मंदिर बना हुआ है),
मां सारदा मंदिर ( स्वामी रामकृष्ण परमहंस से इनकी शादी तब के भारतीय परंपराओं के मुताबिक बचपन में ही करा दी गयी थी. जिस स्थान पर मां का अंतिम संस्कार हुआ उसी जगह इस मंदिर को बनाया गया. गंगा से काफी लगाव रहने के कारण मां के मंदिर का प्रवेश द्वार गंगा की ओर है.) स्वामी विवेकानंद मंदिर ( ये मंदिर दो मंजिला है. इसी जगह स्वामी जी का अंतिम संस्कार किया गया था), समाधि पीठ ( यहां स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के 16 शिष्यों में से सात शिष्यों का अंतिम संस्कार हुआ था.), पुराना मठ ( ये गंगा तट पर बेलूर मठ के दक्षिण में स्थित है. पहले जब मठ अभी के वर्तमान जगह पर नहीं आया था तब तक रामकृष्ण मठ इसी भवन में था. इसी कारण लोग इसे पुराना मठ कहते हैं.)
अगर आप भी इस मठ में घूमने आ रहे हैं तो सबसे जरुरी है यहां के टाइम टेबल को जान लेना. बेलूर मठ अप्रैल से सितम्बर तक सुबह 6 बजे से दोपहर 12 बजे और फिर शाम 4 बजे से 9 बजे तक, और अक्टूबर से मार्च के बीच सुबह 6 : 30 बजे से 11:30 फिर शाम 3 : 30 बजे से 6 बजे तक  खुला रहता है. शाम के वक़्त जब मठ में आरती शुरू होती है तब उस्ससे पहले एक घंटी बजायी जाती है. इससे जितने लोग जो मठ परिसर में घूम रहे होते हैं वे भी रामकृष्ण मंदिर में आकर आरती में शामिल हो जाते हैं.
तो इस तरह दक्षिणेश्वर काली मंदिर और बेलूर मठ घूमते हुए कोलकाता में हमलोगों का ये आखिरी दिन भी बीत गया. रात में हमारी फिर उसी शालीमार स्टेशन से ट्रेन थी. और होटल में जाकर अब वापस पटना लौटने की पैकिंग भी करनी थी. ऐसे में फिर ओला बुक करके हमलोग वापस उलटा टांगा की ओर चल पड़े. हालांकि दिल में एक मलाल ये भी था कि कोलकाता में कई ऐसी जगहें रह गईं जहां समय की कमी के कारण हम घूम नहीं पाएं. पर कोई बात नहीं. जाते – जाते इस शहर से जल्दी ही फिर दोबारा आने का वादा कर आएं हैं.

 

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