कभी इन्हीं चौराहों पर लगती थी यारों संग हमारी महफिलें
आज सालों बाद आया जब अपने इस पुराने शहर
भीगी आंखों में ताजा हो गई वो यादें, किस्से पुराने…”
सच में, 12 साल एक लंबा वक्त तो होता ही है. एक दशक बीत गए बिहार शरीफ को छोड़ कर गए हुए. कभी इस शहर की हर एक गलियों से रोज का आना जाना हुआ करता था, आज इतने सालों बाद वहां से गुजरते हुए अंदर ही अंदर अजीब सा महसूस कर रहा हूं. इस शहर के साथ दिल का रिश्ता है ही इतना गहरा कि यदि यादों का पिटारा खोलें तो सच में एक पूरी की पूरी किताब लिखी जा सकती है.
वक्त के साथ बदलता गया शहर बिहार शरीफ
एक जरुरी काम से अचानक बिहार शरीफ आने का मौका मिल गया. मन में इस शहर की सालों पहले की वहीं तस्वीर चस्पा थी, लेकिन यहां पहुंचा तो काफी कुछ बदल सा गया था. बिहार शरीफ में भी कई माल खुल गए थे. कल तक जहां खाली मैदान हुआ करते थे वहां ऊंची – ऊंची बिल्डिंग बन गई थी. शहर का औद्योगीकरण भी हो गया था. अब तो ये शहर भी स्मार्ट सिटी में शुमार हो गया है. चहल पहल से बाजारों की रौनकें भी काफी बढ़ गई. पहले शहर में ही एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए ऑटो या रिक्शा का इंतजार करना पड़ता था, लेकिन अब तो सड़कों पर इतने ई रिक्शा दौड़ने लगे हैं कि बस एक हाथ देने से तीन – चार ई रिक्शा आपके सामने रुक जाएंगे.
बिहार शरीफ के सबसे बड़े बाजार पुलपर से अम्बेर चौक जाने के लिए जब ई रिक्शा में बैठा तो बदलाव साफ़ साफ़ दिख रहा था, जहां कभी छोटी छोटी दुकानें हुआ करती थी उन जगहों पर आलीशान सुपर मार्केट बन गए थे. एक समय जहां फिल्में देखने दोस्तों के साथ जाया करता था उस कुमार सिनेमा हॉल का खाली मैदान अब रहा कहां, वहां तो कई ब्रांडेड शोरूम नजर आने लगे थे. जैसे ही गढ़पर मोहल्ले से गुजरा तो वो मकान भी दिखा जहां कभी रहा करता था. अरे ये क्या घर के अंदर वो अमरुद का पेड़ तो है ही नहीं, जिसपर चढ़ कर सालों पहले खूब अमरुद तोड़ते थे, कितना मीठा लगता था खाने में.
आगे जाम में जैसे ही ई रिक्शा कुछ देर के लिए रुकी तो लाल रंग की उस बिल्डिंग को देख कर सिर खुद ब खुद श्रद्धा से झुक गया. नालंदा कॉलेज, आखिर यही तो मेरी ज्ञान स्थली रही थी, जहां से मैंने मैट्रिक के बाद इंटर और ग्रेजुएशन कम्पलीट किया था. परीक्षा चलने के कारण कॉलेज का गेट बंद था इस कारण अंदर नहीं जा सका. सोचा, चलो अच्छा हुआ अंदर नहीं गया वर्ना खुद को फिर संभाल नहीं पाता, पढ़ाई के साथ साथ दोस्तों संग की गई मस्ती की ना जाने कितनी यादें इस जगह से जुड़ी हैं. इंटर और ग्रेजुएशन मिलाकर कुल पांच साल हमने इस कॉलेज में बिताए थे. साल 2007 से लेकर 2011 तक ये कॉलेज कैंपस हमारे लिए दूसरा घर जैसा ही था. तब की यारियां, टशन और बेतकल्लुफ सी जिंदगी… सच में, सब कितने पीछे छुट गए ना.
यादों के गलियारों से अभी गुजर ही रहा था कि ई रिक्शे वाले ने टोका, भैया अम्बेर आ गया दीजिये पांच रूपए. पॉकेट से पैसे निकालते हुए सोचने लगा देखो एक वो भी वक्त था जब कॉलेज और कोचिंग करने के लिए अपनी साइकिल से ही पूरा शहर नाप देते थे, आज थोड़ी दूर चलने के लिए भी रिक्शे का सहारा लेना पड़ रहा है.
सुभाष पार्क : युवाओं के घूमने का था ठिकाना
बिहार शरीफ के हॉस्पिटल मोड़ चौराहा से आगे स्थित सुभाष पार्क उन दिनों नया नया बन कर तैयार हुआ था. सर्दियों में अक्सर हमलोग धूप खाने पहुंच जाया करते थे. रंगबिरंगे फूलों के बीच, हरी-हरी घास पर बैठना तब कितना सुकून देता था. आज भले देश के कई जगहों की घुमक्कड़ी कर चुका हूं. समुंद्र से लेकर झील में बोटिंग का मजा लिया, लेकिन ये भी सच है, जिंदगी में पहली बार बोटिंग करने का अनुभव मुझे इसी सुभाष पार्क में मिला. आज इतने सालों बाद एक बार फिर इस पार्क में आया था. तब और अब में कितना कुछ बदल गया. उस वक्त दोस्तों के साथ यहां घमाचौकड़ी होती थी.
आज वाइफ के साथ आया था, पहली बार. सोचा, समय है तो बोटिंग करते हुए पुराने दिनों को याद करेंगे. लेकिन, ये क्या ! तालाब में तो सिर्फ घास जमा था. पानी के फव्वारे भी बंद पड़े थे. वो खूबसूरती, वो रौनकें सभी गायब थी वहां की. इंट्री टिकट के दाम भी अब दस रूपए हो गए. पार्क के बेंच पर बैठ हमने भी बिहार शरीफ की उन यादों को ताजा किया. चलते – चलते इन पलों को भी तस्वीरों में समेट कर रख लिया. ताकि भविष्य में ये मोमेंट भी हमारे साथ एक सुखद याद बनकर हमेशा के लिए रह जाए.
मॉडर्न हो गए पहाड़, धनेश्वर घाट मंदिर की वही है पहचान
बरसों बाद अपने पुराने शहर में पैदल भटक रहा था मैं. बचपन में जब पापा मम्मी के साथ पहली बार बिहार शरीफ आया था तो यहीं प्रोफ़ेसर कॉलोनी में रहता था. सुबह – सुबह पूजा के लिए फूल तोड़ने यहां जंगलिया बाबा शिव मंदिर जाता था. हरसिंगार के फूलों को मैंने पहली बार यहीं देखा था. उस वक्त कई और सुंदर सुंदर फूलों के पौधे वहां होते थे. जिन्हें देख बड़ा अच्छा लगता था.
हालांकि उस वक्त मंदिर की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी. लेकिन हर पर्व त्योहार के समय हमलोग यहीं आते थे तो मंदिर के प्रति एक लगाव सा हो गया था. इस बार भी सोच लिया था मौका मिला तो एक बार दर्शन जरुर करूंगा. और संयोग देखिए भोलेनाथ ने भी अपने इस भक्त को आखिर बुला ही लिया अपने पास. गेट के पास आते ही मैं तो चौंक गया, अरे पहले यहां तो लोहे का छोटा घूमने वाला गेट हुआ करता था. लेकिन उसकी जगह तो बड़ा सा भव्य दरवाजा यहां लग गया. अंदर मंदिर भी काफी खुबसूरत दिखने लगा था. मंदिर को प्रणाम किया और वहां से निकल पड़ा धनेश्वर घाट की तरफ.
उस वक्त हमलोगों के लिए धनेश्वर घाट मंदिर किसी टूरिस्ट स्पॉट से कम नहीं लगता था. घर में दूसरे शहर से जब कोई रिश्तेदार भी आते तो उन्हें घुमाने के लिए इसी मंदिर में ले आते थे. यह मंदिर करीब तीन सौ साल पुराना है और भोलेनाथ के एक स्वरुप बाबा धनेश्वर नाथ के नाम से जाना जाता है. बाबा धनेश्वर नाथ के शिवलिंग के दक्षिण दिशा की ओर हनुमान जी का मंदिर है. वहीं, शिवलिंग के पूर्व दिशा की ओर मां भगवती की प्रतिमा स्थापित है. स्थानीय पुजारी बताते हैं कि मां भगवती के मंदिर का निर्माण मुग़ल काल के दौरान हुआ था. इसका प्रमाण इस मंदिर की गुंबद शैली है. हालांकि इतने सालों बाद जब दर्शन करने यहां पहुंचा तो देखा मंदिर तो वैसा ही है लेकिन उसके बाहर काफी कुछ बदल गया था. पहले एक दो दुकानें मंदिर से सटे झोपड़ी में हुआ करती थी. उसकी जगह आज मंदिर के सामने एक लाइन से पक्के दुकान बन गए हैं.
प्रसाद के लिए पहले बेसन के छोटे-छोटे लड्डू मिला करते थे, लेकिन अब तो लड्डू का साइज़ भी बड़ा हो गया और फूल मालाओं के साथ और भी कई तरह के प्रसाद भी मिलने लगे, सालों बाद अपने आराध्य के दर्शन कर मन को बड़ा सुकून मिल रहा था. वैसे तो इस मंदिर में सुबह हो या शाम, श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती थी, लेकिन जिस वक्त शाम को मैं पहुंचा उस वक्त मंदिर बिलकुल खाली था. बस मैं और मेरे भगवान्. आंखें बंद और हाथ जोड़े मन ही मन अपने इष्टदेव के ध्यान में डूबा था…
यहां से अब बढ़ चला शहर की सबसे ऊंची जगह यानी बड़ी पहाड़ी की ओर. बिहार शरीफ की सुंदरता देखनी हो तो बस यहां चले आइये आपको शहर का एक अद्भुत नजारा देखने को मिलेगा. वैसे तो इसे हिरण्य पर्वत कहा जाता है लेकिन हम सभी इसे बड़ी पहाड़ी ही कहते थे. रक्षाबंधन हो या न्यू ईयर, सेलिब्रेशन के हर मौके पर हमलोग यहां कभी फैमिली तो कभी फ्रेंड्स के साथ अक्सर जाया करते थे. बिहार शरीफ के पश्चिमी भाग में स्थित हरियाली से भरी ये पहाड़ी आज भी यहां के लोगों के लिए घूमने की एक बेहतरीन जगह है. पहाड़ी के एक छोर पर मकबरा है तो दूसरे छोर पर प्राचीन हनुमान मंदिर और नया शिव मंदिर. जैसे ही मैं यहां पहुंचा, मेरी आंखें तो आश्चर्य से फटी की फटी रह गई. अरे पहले तो हमलोग पत्थरों के बने रास्ते से होकर ऊपर जाते थे लेकिन अब तो पक्की सड़क बन गई है. सिर्फ इतना ही नहीं बाइक और कार सभी फर्राटा भरते हुए ऊपर तक जा रहे थे. उनके लिए पार्किंग की भी जगह मिल गई. कुछ सीढ़ियां चढ़कर और उपर गया तो एक चिल्ड्रेन पार्क भी दिखा. कुछ लोग टिकट कटा कर अंदर भी जा रहे थे. बगल में दो तीन कमरों वाला हेल्थ क्लब भी बना हुआ था. देख कर लग रहा था जिला प्रशासन और नगर निगम ने बड़ी पहाड़ी के सौंदर्यीकरण पर करोड़ों रूपए खर्च किया था.
हिरण्येश्वर धाम शिव मंदिर जाने के रास्तों पर भी पक्की सीढ़ियां बनी हुई थी. जिसपर चलते हुए याद आने लगी कॉलेज के समय की वो पुरानी बाते, जब एनवायरनमेंटल साइंस के क्लास के दौरान सर के साथ हम सभी इस पहाड़ पर घंटों वक्त बिताया करते थे. वो हमें यहां के पत्थरों उसपर उगने वाली हर वनस्पतियों के बारे में बताया करते थे. आज इतने सालों के बाद इन पत्थरों पर चलते हुए उन यादों से दिल भर आया.
मंदिर के पास पहुंचा तो देखा पुजारी जी गेट खोल रहे थे. बस उनके साथ मैं भी अंदर प्रवेश कर गया. अंदर हनुमान जी के मंदिर में जाकर पहले दर्शन किया. फिर एक नजर मंदिर के अंदर देखा तो अब भी वैसा ही सुविचार चारों तरफ लिखा था जैसे पहले लिखा हुआ देखा करता था. कुछ भी तो नहीं बदला था. फिर हिरण्येश्वर धाम शिव मंदिर जाकर शिवलिंग के पास अपना माथा टेका. तब तक पुजारी जी भी चंदन घिस कर टीका लगाने के लिए तैयार खड़े थे. टीका लगाते-लगाते उनसे मंदिर के बारे में बातें कर ही रहा था, तभी मेरी नजर शिवलिंग के बगल में रखी शंख पर पड़ी. पूछने पर पुजारी जी ने बताया कि ये पंचमुखी शंख है. इसे विजय व यश का प्रतीक माना जाता है. भगवान कृष्ण के पास भी पंचमुखी शंख था जिसकी ध्वनि कई सौ किलोमीटर दूर तक सुनाई देती थी.
मंदिर से निकल कर पहाड़ी के पीछे चला आया, उधर लोहे की जाली वाली रेलिंग लगी थी. वहां से नीचे छोटे – छोटे खेत दिख रहे थे. बह रही ठंडी हवाएं, सामने डूबता सूर्य और आसमान में सूर्यास्त का वो सुंदर नजारा. पहाड़ी की चोटी पर खड़े होकर बारह साल बाद आखिर इसे देखने का फिर एक मौका मुझे मिला था. पुराने शहर की ये सारी यादें एक बार फिर समेट कर अब वापस लौट रहा था.
इस बीच, पुरानी गलियों और सड़कों से गुजरते हुए इस शहर में कुछ अधूरी कहानियां और कुछ बेवजह के दोस्त भी मिलें, उन दिनों की दोस्ती बस बेपरवाह सी और दिल के बेहद करीब थी, जिसमें वजह का कोई वजूद नहीं था. बस साथ चलते चलते जिंदगी की राह में कदम कब कैसे अलग हुए, ध्यान ही नहीं रहा. कभी साथ हंसी ठहाकों से हमारी गली का नुक्कड़ भी गूंजता था. आज बीते वक्त के उन लम्हों को याद करता हूं आंखें गीली और होंठों में मुस्कान तैर जाती है.