वाराणसी में रहते हुए वक़्त मानों रेत की मानिंद हाथ से फिसलता जा रहा था और छुट्टियाँ भी ख़त्म होने वाली थी. इस दौरान अब तक शहर के अधिकांश दर्शनीय स्थलों के दर्शन हो चुके थे. बस विन्ध्याचल की यात्रा बाकी रह गयी थी. विन्ध्याचल बनारस से 65 किलोमीटर की दुरी पर है. कहा गया की अगर यहां चलना है तो सुबह ही हमलोगों को घर छोड़ देना पड़ेगा, तभी समय पर वापस लौट भी पायेंगे. माँ विंध्यवासिनी के दर्शन का उत्साह था इसलिए हमलोगों की नींद भी अगली सुबह बड़ी जल्दी खुल गयी. बनारस से हम सभी लोग अपनी तीन बड़ी गाड़ियों पर बैठ निकल पड़े विन्ध्याचल यात्रा पर.

वाराणसी से विन्ध्याचल जाने के दौरान रास्ते भर हमलोगों की मस्ती चलती रही और इन सबके बीच मेरी सेल्फी भी चालू रही. गाड़ी की खिड़की से जब जब नजरें बाहर जाती तो प्रकृति की अथाह सुन्दरता देखने को मिल जाती, कभी खेतों में लहलहाते फसल तो कभी ट्रैफिक का शोर गुल, कभी  कच्चे-पक्के मकान, तो कभी स्थानीय बाजारों में मोल भाव करते लोगों को देखते हुए तेजी से आगे बढ़ जाना बड़ा अच्छा लग रहा था. देखते ही देखते मात्र कुछ घंटों में ये 65 किलोमीटर का सफ़र कब पार हो गया पता भी नहीं चला.

विन्ध्याचल उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले का एक क़स्बा है, जहां विन्ध्य पहाड़ियों के बीच गंगा के तट पर स्थित विंध्यवासिनी देवी का मंदिर है. इन्हें जागृत शक्तिपीठ माना जाता है. यह देश के 51 शक्तिपीठों में से एक है. विन्ध्याचल ही एकमात्र ऐसा स्थान है जहां आदि शक्ति अपने पूरे स्वरुप में विराजमान है, वर्ना और कहीं देवी के पूर्ण विग्रह के दर्शन नहीं होते. जहां अन्य शक्तिपीठों में अलग अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है, वहीँ यहां देवी की पूर्ण स्वरुप के दर्शन होते हैं.

गाड़ियों को पार्किंग में लगा कर अब हमलोग विन्ध्याचल की भीड़ भाड़ वाली जगह यानि न्यू वी आई पी रोड पर थे, जहां से हमें विंध्यवासिनी मंदिर जाना था. मंदिर से नजदीक होने के कारण इस रोड पर कई छोटे बड़े होटल्स और भोजनालय खुले थे. आगे जाने पर एक गली से होते हुए हमलोग माँ विंध्यवासिनी के मंदिर की ओर बढ़ रहे थे. इस गली के दोनों ओर दुकानें सजी थी जिनमे पूजा पाठ से लेकर श्रृंगार, सजावट और खेल खिलोने आदि मिल रहे थे. इन तंग गलियों से होते हुए मंदिर पहुंचे, बाहर से देखा तो अभी यहां भीड़ लगी थी, माँ के दर्शन के लिए अलग अलग स्थानों से आये श्रद्धालु कतारों में लग कर अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे. पर हमलोगों को अभी पूजा नहीं करनी थी, आदि शक्ति से पहले माँ गंगा से मिलना था और उनके दर्शन करने थे. बनारस के घाटों की तरह यहां भी गंगा में उतरना था और गंगा की लहरों के साथ एक बार फिर ढेर सारी मस्ती करनी थी.

इसलिए विंध्यवासिनी मंदिर से होते हुए पक्का घाट की ओर निकल गए. मंदिर से ये घाट बहुत नजदीक है, लेकिन काफी नीचे है. सीढियों से नीचे उतरते वक़्त गणेश भगवान की भव्य मूर्ति दिखी, जिन्हें मन ही मन प्रणाम करते हुए हम लोग गंगा घाट पर उतर आये. घाट के किनारे बांस और पुआल से बनी कई झोपड़ियाँ थी जिनमे चौकियां लगी थी.

मुख्य सड़क से यहां तक पैदल आते आते हमलोग पूरी तरह थक गए थे वहीँ सर पर तेज पड़ती धूप के कारण हाल और बेहाल था, गर्मी और थकावट के कारण हमलोग पहले वहां लगी चौकियों पर बैठ कर सुस्ताने लगे. सामने गंगा नदी बह रही थी और उसके ठन्डे पानी को देख आखिर रहा नहीं गया. गर्मी से बचने के लिए जल्दी जल्दी कपड़े निकाल कर हमलोग गंगा में उतर गए. घंटों गंगा की जलतरंगों से मस्ती करने के बाद हमलोग तैयार हुए माँ विंध्यवासिनी मंदिर जाने के लिए.

मंदिर वाली गली में कतारबद्ध कई दुकानें थी, जहां फूल-माला, प्रसाद से लेकर कपड़े और अन्य सामान मिल रहे थे. गली की दीवारों पर वहां प्रसाद की कीमतें लिखी थी, जो 11 रूपए से लेकर 501 रूपए तक की थी. प्रसाद लेने के लिए मंदिर से सटे एक दुकान में गए और वहीँ हमलोगों ने अपने जूते-चप्पल खोल कर रख दिया. फिर नंगे पैर माँ के दर्शन के लिए मंदिर की ओर बढ़ चले. मंदिर के अन्दर अब भी लम्बी लाइन लगी थी, हमलोग भी उसी लाइन का हिस्सा बन गए. कुछ देर बाद जब छोटे से दरवाजे को पार कर अन्दर पहुंचे तो माँ विंध्यवासिनी के दर्शन का सौभाग्य मिला. मंदिर परिसर में ही महाकाली, महासरस्वती, पंचमुखी महादेव, दक्षिणमुखी हनुमान आदि कई देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी स्थापित है. यहां चार चरणों में प्रतिदिन आरती की जाती है. पहली आरती सुबह 4 बजे होती है, जिसे मंगल आरती कहते हैं. इसके बाद दोपहर 12 बजे शयन आरती की जाती है. शाम 7:30 बजे संध्या आरती और रात 9:30 बजे निशा आरती होती है. मंदिर में मां के दर्शन कर हमलोग बाहर आयें और फिर यहां की छोटी छोटी दुकानों में विंडो शोपिंग का मजा लिया. फिर यहां से निकले माँ अष्टभुजा देवी मंदिर की ओर.

माँ अष्टभुजा देवी का मंदिर विन्ध्यवासिनीं देवी के मंदिर से तीन किलोमीटर की दुरी पर अवस्थित है. अष्टभुजा माँ को भगवन कृष्ण की सबसे छोटी बहन माना जाता है. जब ये माता यशोदा की गर्भ से पैदा हुई तो कंस ने इन्हें देवकी की आठवी संतान समझ लिया और जैसे ही मारने के लिए पत्थर पर पटका, तो ये कंस के हाथ से छूट कर आकाश की ओर उड़ गयी और जाते जाते इन्होने दुष्ट कंस को चेतावनी दी की कंस तुम्हारा संहारक इस धरती पर आ चुका है. बाद में माँ इसी अष्टभुजा पहाड़ी पर अवतरित हुई. इस पहाड़ी से विन्ध्याचल शहर की सुन्दरता देखते बनती है.

मन में माँ अष्टभुजा के दर्शन की लालसा लिए, उन्हें प्रसाद चढ़ाने के लिए हमलोग भी कतार में खड़े हो गए. पर तब तक यह नहीं मालूम था कि मंदिर के अन्दर प्रसाद नहीं बल्कि वहां के पण्डे-पुजारी दान दक्षिणा के इन्तजार में बैठे हैं. ओह, यहां गर्भ गृह का हाल देख कर मैं हैरत में पड़ गया. भक्ति के नाम पर तो यहां पैसों की लूट मची हुई थी. यहां आने वाले दर्शनार्थियों के साथ मंदिर के पण्डे ऐसा सलूक करते हैं, मैं यह सोच भी नहीं सकता था. मेरे आंखों के सामने ही एक महिला दान देने के लिए कुछ पैसे निकाल कर गिन रही थी, तभी वहां मौजूद एक पण्डे ने महिला के हाथ से उसके सारे पैसे छीन लिए और यह कह कर उसे बाहर कर दिया कि चलो दान हो गया. मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं किसी धर्म नगरी में हूं. इस घटना के बाद मेरे साथ साथ कई और लोग जो दान देने के लिए पहले से हाथ में पैसे लिए हुए थे, हम सभी ने वो पैसे वापस अपने पॉकेट में रख लिया. सोचा ऐसे हृष्ट-पुष्ट और लोभी पंडों को पैसे देने से अच्छा किसी गरीब को ये पैसे दान कर दूं. मंदिर परिसर में ही पातालपुरी देवी मंदिर है जो एक छोटी गुफा के अन्दर है. इसके अन्दर जाने का रास्ता बेहद संकरा है. यहां भी एक बाबा जी ‘दान-उगाही’ में लगे हुए थे. पहले वाली घटना से मन में गुस्सा तो था ही इसलिए मैंने जानबूझकर यहां भी कोई चढ़ावा नहीं चढ़ाया. मंदिर दोपहर में कुछ वक़्त साफ़-सफाई के लिए बंद कर दिया जाता है, इसके बाद यहां आरती की जाती है. मंदिर के अन्दर फोटो लेने की मनाही थी, इसलिए मंदिर से बाहर यहां की खूबसूरती को अपने कैमरे में कैद किया.

अब यहां के बाद हमारी गाड़ी कालीखोह की ओर बढ़ी. यह स्थान विन्ध्य पर्वत पर स्थित है. कहा जाता है कि रक्तबीज नामक राक्षस से परेशान होकर जब देवताओं ने भगवती पार्वती से प्रार्थना की तो माता भगवती राक्षसों पर इतनी ज्यादा क्रोधित हो गयी कि उनका वर्ण काला पड़ गया. इसी से इन्हें माँ काली, चंडी, चामुंडा और चंडिका जैसे नामों से जाना जाने लगा. रक्तबीज का संहार करते वक़्त माँ काली ने विकराल रूप धारण कर लिया था. उनके क्रोध को शांत करने के लिए भगवान शिव को भूमि पर लेट जाना पड़ा. युद्धभूमि में जब माँ काली के चरण अचानक भगवान शिव पर पड़े, तो वो लज्जावश पहाड़ियों की खोह में जाकर छिप गयी. इसी कारण इस स्थान को कालीखोह कहा जाने लगा.

इस मंदिर के अन्दर भी अन्य मंदिरों की तरह ‘दानप्रिय’ पण्डे ही दिखाई पड़े. इसलिए मैंने भी उन्हें अनदेखा कर सिर्फ माँ काली का दर्शन किया और फिर बाहर निकल गया. इस तरह तीनों मंदिरों और देवी के तीन रूपों के दर्शन के बाद हमारी त्रिकोण परिक्रमा संपन्न हुई. अब तक शाम हो गयी थी और भगवान सूर्य भी अपने लाव लश्कर के साथ पश्चिम की यात्रा पर निकल चुके थे. दिनभर का पूरा वक़्त हमलोगों ने मंदिरों की यात्रा में ही गुजारा था, इस दौरान थोड़े बहुत प्रसाद और स्नेक्स के अलावे अभी तक और कुछ नहीं खाया था, इसलिए सभी लोगों को बड़ी जोर की भूख लग गयी थी. रास्ते में विन्ध्याचल के शिवपुर स्थित मौर्या रेस्टुरेंट के पास ड्राईवर ने गाड़ी रोकी और वहां हमलोगों ने अपनी पेट-पूजा की. होटल से जब खा पी कर निकले तब तक अँधेरा घिरने लगा था. अब वापस हमलोग वाराणसी लौट रहे थे.

इस तरह हमारी विन्ध्याचल यात्रा पूरी हो चुकी थी और विन्ध्याचल यात्रा के साथ ही पूरा हो गया था हमारे बनारस भ्रमण का चौथा और आखिरी चरण भी.

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