द्वारिका दर्शन कराने वाले बस से अब हमें रुक्मणी मंदिर, गोपी तालाब, भगवन शिव के बारह ज्योतिर्लिंग में से एक नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर और बेट/भेंट द्वारिका घुमने जाना था. वापस तीन बत्ती चौक पर आये तो देखा कि यहाँ बस लगी हुई है. खुलने में अभी थोड़ा वक़्त था इसलिए हमलोगों ने पास के एक दूकान से गर्मी दूर करने के लिए अपनी अपनी फेवरिट आइसक्रीम खायी. तब तक बस में लोग आने लगे थे. हमने भी आकर अपनी सीट पकड़ ली.

द्वारिकाधीश मंदिर
कुछ देर में ही जय द्वारिकाधीश के जयकारे के साथ  अपने समय से बस खुल गयी. सबसे पहले हमें रुक्मणी मंदिर जाना था जो द्वारिका के बाहरी हिस्से में  करीब 3 किलोमीटर दूर स्थित है. बस में सबसे अच्छा यह लगा की बस का कंडक्टर हमें हर स्थान के बारे में काफी सारी जानकारी दे रहा था. मंदिर के इतिहास से लेकर वहां क्या क्या सावधानियां बरती जाए सब कुछ बता रहा था. रुक्मणी मंदिर आने से पहले ही उसने हमें वहां की जानकारी दे दी. मंदिर से जुडी एक रोचक कहानी है कि एक बार भगवान कृष्ण के गुरु दुर्वासा ऋषि द्वारिका आने वाले थे. इन्हें ससम्मान लाने के लिए कृष्ण अपनी रानी रुक्मणी के साथ जंगल में गए. वहां ऋषि ने कह दिया की अगर घोड़े की जगह रथ में कृष्ण और रुक्मणी जुत कर मुझे ले चले तो ही मैं द्वारिका आऊंगा. दोनों ने ऐसा ही किया. रास्ते में चलते वक़्त एक जगह माता रुक्मणी को प्यास लगी तो भगवान ने जमीन में से पानी निकाल कर उन्हें पीने को दिया. गर्मी और थकान के कारण रुक्मणी जी बिना अपने गुरु को पहले पानी दिए उस पानी को खुद पी गयी.

रुक्मणी मंदिर
इसी बात से ऋषि दुर्वासा क्रोधित हो गए.और रुक्मणी जी को श्राप दे दिया कि  अगले बारह वर्षों तक रुक्मणी जी भगवान कृष्ण से दूर इसी स्थान पर प्यासी रहेंगी. यही कारण है कि द्वारिकाधीश मंदिर में रुक्मणी जी का मंदिर नहीं है. बल्कि द्वारिका से दूर है. बस यहाँ दस- पंद्रह  मिनट रुकी थी. मंदिर में माता रुक्मणी के दर्शन कर फिर हमने आगे नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की ओर प्रस्थान किया.

द्वारिका से नागेश्वर करीब 15-16 किलोमीटर की दुरी पर है. यहां शिव के बारह ज्योतिर्लिंग में से आठवां ज्योतिर्लिंग स्थापित है. मंदिर परिसर में ही महादेव की ध्यान मुद्रा में एक विशाल और नयनाभिराम प्रतिमा है, जो आते वक़्त दूर से ही दिखाई पड़ रहा था. यहाँ दारुक नामक राक्षस का वध शिव ने नाग के अवतार में किया था इसलिए इस जगह को नागेश्वर मंदिर कहा जाता है. यहां के वर्तमान मंदिर का निर्माण टी-सीरीज कैसेट के मालिक स्वर्गीय गुलशन कुमार ने करवाया था. साल 1996 में इसका जीर्णोधार शुरू किया गया था, इसी बीच गुलशन कुमार की हत्या हो जाने के कारण बाद में उनके फैमिली ने मंदिर निर्माण पूरा करवाया.

मंदिर बनाने में करीब सवा करोड़ रूपए लगे जिसका भुगतान गुलशन कुमार चेरिटेबल ट्रस्ट ने किया. यही कारण है कि मंदिर के अन्दर स्वर्गीय गुलशन कुमार की एक बड़ी तस्वीर लगी है. मंदिर में घुसते वक़्त सबसे पहले एक बड़ा हाल है जहाँ पूजा के लिए छोटी छोटी दुकाने थी, जहां पूजा की थाली मिल रही थी. इन पूजा की थालियों को लेने के लिए 300/500/1100/2500 रूपए की पर्चियां कटानी पड़ती है. बस के कंडक्टर ने हमें इसकी सच्चाई बताई थी कि यहां जो थाली चढ़ाई जाती है, वो सामग्री ज्योतिर्लिंग पर चढ़ कर वापस बिकने के लिए दुकान में आ जाती है. इसलिए हमलोगों ने यहां कोई पूजा के लिए कोई चीज नहीं खरीदी, बस भक्ति भाव से हाथ जोड़ अन्दर आ गए.

यहीं सभा गृह से आगे मंदिर के गर्भ गृह में श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित है. मंदिर में भीड़ नहीं होने के कारण हमने ज्योतिर्लिंग के दर्शन बड़ी आसानी से कर लिए. मंदिर में मोबाइल-कैमरा ले जा सकते थे पर अन्दर फोटो लेने की मनाही थी इसलिए दर्शन करने के बाद प्रसाद लेकर हमलोग बाहर आ गए. बाहर परिसर में स्थित भगवान् शिव की पद्मासन मुद्रा में विशालकाय मूर्ति के सामने हमलोगों ने भी फोटोग्राफी की. यह मूर्ति लगभग 85 फीट उंची और 25 फीट चौड़ी है.

तक़रीबन 20 से 25 मिनट रुकने के बाद अब हमारी बारी थी गोपी तालाब देखने की. नागेश्वर मंदिर से गोपी नाथ 5 किलोमीटर तो द्वारिका से 20 किलोमीटर की दूरी पर यह बेट द्वारिका के रास्ते में पड़ता है. अपने नाम के अनुरूप गोपी तालाब एक छोटा सा तालाब है जिसकी मिटटी चन्दन जैसी पीली है. यहां के विषय में एक कथा यह है कि भगवान कृष्ण अपनी 16 हजार एक सौ आठ गोपियों को मथुरा से अपने घर बेट द्वारिका लेकर आए.

उन गोपियों की जिम्मेवारी उन्होंने अर्जुन को दे दी. अर्जुन को अपनी धनुर्विद्या पर अभिमान था. गोपी तालाब के शीतल और स्वच्छ जल को देख गोपियों को नहाने की इच्छा हुई. सभी गोपियां इस तालाब में नहाने लगी, तब भगवान ने अपने दोनों हाथ के मैल द्वारा भील लोगों को उत्पन्न किया. जिसने गोपियों को लूट लिया. अब शर्म के मारे ये गोपियाँ कहां जाती इसलिए इसी तालाब में सभी समा गयी. ऐसे वक़्त में अर्जुन की धनुर्विद्या भी काम न आ सकी. भील लोगों ने उनका बाण तोड़ दिया. इस घटना ने अर्जुन का गर्व और अभिमान भी तोड़ दिया. यहाँ हमारी बस 20 मिनट के लिए रुकी थी. एक बड़े गेट के अन्दर सीधे चलने पर गोपी तालाब आया जो देखने में साधारण लगा. तालाब में कई भेंसे उतरी हुई थी. फिर भी यहां हमने यादगार के लिए कुछ तस्वीरें ले ली. बस जब आगे बढ़ी तो बेट द्वारिका के रास्ते में हमने उस फैक्ट्री को भी देखा जहां देश का नमक बनता है. जी हां सही पकडे आप. यानि मंदिरों के साथ साथ टाटा नमक की फैक्ट्री के भी दर्शन हो गए.

गोपी तालाब
टाटा नमक की फैक्ट्री

अब तक हम सभी द्वारिका के तीन स्थानों को देख चुके थे. इस दौरान बस में बैठे अपने सहयात्रियों से भी थोड़ी बहुत जान पहचान हो गयी थी. सभी देश के अलग अलग राज्यों से अपनी फैमिली के साथ आये थे. मंदिरों में दर्शन के वक़्त अपने बस के उन सहयात्रियों को देख यह निश्चिंतता रहती कि अभी हमारे पास समय है और बस नहीं खुलेगी हमारे बिना.

अंत में, द्वारिका दर्शन का यह आखिरी मंदिर हमें देखना था. जो बेट या भेंट द्वारिका कहलाता है. यानि भगवान कृष्ण का घर. वर्ष 2001 में गुजरात में जो भूकंप आया था उससे यह मंदिर भी प्रभावित हुआ था. फिर राजस्थानी पत्थरों से यहां नया मंदिर बनाया गया. माना जाता है की यह स्थान द्वारिकाधीश का निवास स्थान था. द्वारिका में भगवान का महल था जहां से वो राज पाठ चलाते थे और बेट/भेंट द्वारिका उनका घर था जहां वो रहते थे. यह वही जगह है जहां कृष्ण के मित्र सुदामा अपने गांव पोरबंदर से आकर उनसे भेंट किए थे. यहीं सुदामा ने कृष्ण को तीन मुट्ठी चावल दिया था और बदले में कृष्ण ने सुदामा को धन-धान्य से परिपूर्ण कर दिया था.

द्वारिका से 30 किलोमीटर पार कर के हमारी बस ओखा पहुंची. जब हमें पता लगा कि देश के अंतिम छोर पर पहुंचे हुए है तो काफी उत्साहित हो गए. ओखा यानि इसके बाद कोई गांव नहीं, कोई रास्ता नहीं. सीधे 150 किलोमीटर के बाद पाकिस्तान का बॉर्डर कराची. बेट द्वारिका दरअसल समुंद्र के बीचोंबीच 24 किलोमीटर में फैला एक छोटा सा आईलैंड या टापू है, जिसके चारों ओर अपनी अथाह लहरों के साथ हिलोरें मारता अरब सागर है. ओखा के समुन्द्री घाट पर से कई स्टीमर या बड़ी नाव चलती है. जिनका एक तरफ का किराया दस रूपए है. हां लेकिन इन नावों पर बैठने में डर भी लगता है क्योंकि एक नाव पर करीब सौ से सवा सौ यात्रियों को बैठा लिया जाता है. ऐसे में एक नाव पर हमलोग भी सवार हो गए.

नाव से बेट द्वारिका जाने में आधा घंटा लगता है. लेकिन इस आधे घंटे का अपना एक अलग मजा रहा. कभी डगमग-डगमग नाव डोलती तो कभी अरेबियन सी की उठने वाली जोरदार लहरें नाव पर बैठे हमलोगों को भिंगो जाती. ऊपर परिंदों का झुंड हमारे साथ साथ उड़ान भरता तो कभी इस गहरे सागर में हमारी नाव पलट गयी तो… ख्याल मात्र से ही थर्रा जाते. जीवन में पहली बार सागर के बीच से गुजर रहा था और पहली बार ही किसी टापू पर जा रहा था. सचमुच एक अलग अनुभव रहा यह. इसी तरह लहरों से लड़ते हम बेट द्वारिका के द्वीप पर पहुँच गए. यहां भी मंदिर के बाहर सामान, कैमरा और मोबाइल को जमा कर हमलोग लम्बी लाइन में लग गए. मंदिर में दर्शन कराने की व्यवस्था अच्छी लगी. एक पुजारी टुकड़ों में बाँट कर दर्शनार्थियों को हर मूर्ति के बारे में विस्तार से बताता है. इससे भीड़ भी नहीं होती और सारे लोग आराम से भगवान के दर्शन भी कर लेते हैं.

यहां हमने कृष्ण की वह मूर्ति भी देखी जिसके अन्दर कहा जाता है कि मेवाड़ की मीराबाई समा गयी थी. यहां चावल की महत्ता है. आने वाले हर भक्त को कुछ चावल दिया जाता है और कहा जाता है कि इसे ले जाकर अपने घर में जहां अनाज रखा जाता है उसमे मिला दें, ऐसा करने से आपके घर धन-धान्य की कभी कोई कमी नहीं होगी. यहां प्रसाद लेने के लिए मंदिर के अन्दर पैसे जमा कर पर्ची लेना पड़ता है, फिर मंदिर के बाहर पर्ची दे कर आप प्रसाद ले सकते हैं. टापू पर स्थित द्वारिकाधीश के घर घूमते हुए अब शाम हो चुकी थी. बेट द्वारिका से ओखा पोर्ट जाने के लिए फिर वैसा ही एक लोगों से भरी नाव और नाव पर बैठ दोबारा उन्ही अनुभवों से जूझता मेरा मन लहरों के बीच झूलता चला जा रहा था वापस. ओखा पोर्ट पर उतर कर रिफ्रेशमेंट के लिए हमलोगों ने नारियल पानी पिया और उसकी गिरी खायी. फिर बस में बैठ चल पड़े द्वारिका की ओर.

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