वो रोज कॉलेज आना, क्लासेज अटेंड करना, कभी पी.सी.आर. रूम में एडिटिंग सीखना तो कभी स्टूडियो में कैमरा फेस करना. जब से मास कम्युनिकेशन की पढाई करने के लिए कॉलेज में एडमिशन लिया उस वक़्त से अपनी पढ़ाई में ऐसे रमे रहे मानों बाहरी दुनिया से तो अब मतलब ही नही रहा. ऊपर से फर्स्ट सेमेस्टर के एग्जाम का टेंशन. खैर, हम सभी ने अपनी परीक्षाएं दी. अब हमें इन्तजार था मिलने वाली उन छुट्टियों का, जिनमें हम सभी खूब मस्ती करने वाले थे.
इसी दौरान लास्ट एग्जाम के दिन अचानक दोस्तों ने इन्हीं छुट्टियों में किसी एक दिन कहीं बाहर घुमने का प्लान बना दिया. बस फिर क्या था, मिल गया हमें एक मौका अपनी इन छुट्टियों को यादगार बनाने का.
हालांकि पत्रकारिता के स्टूडेंट्स होने के कारण हमलोगों ने तय किया की किसी ऐसी जगह चला जाए जहाँ हमें घुमने के साथ साथ जानने और सीखने को भी काफी कुछ मिले. तभी किसी ने वैशाली का नाम लिया. वैशाली के उन्नत और समृद्ध अतीत के बारे में वैसे तो बचपन से ही पढ़ते – सुनते आये थे, पर कभी उसे नजदीक से देखने का मौका नही मिला था. बस तो अब यह फाइनल हो गया कि हम सभी फ्रेंड्स जिनमें मैं, अभिनय, दीपक, आनंद, रूचि, मोनी, अनिता और आकांक्षा शामिल थे, सभी भारत के गौरवशाली अतीत का हिस्सा रह चुका क्षेत्र वैशाली चलेंगे, और वहां की प्राचीन धरोहरों के साथ समृद्ध विरासत को और भी नजदीक से देखेंगे.
31 मार्च, 2012 की सुबह हम सभी निकल पड़े उन रास्तों पर, जो हमें वैशाली की ओर ले जा रही थी. गाडी की खिड़की से पीछे छुटते दृश्यों को देखते, साथ हँसी-मजाक करते, हर एक लम्हे को अपनी यादों में समेटते और बीच-बीच में वैशाली के बारे में एक दुसरे से बातें कर, अपनी जानकारियों का दायरा बढ़ाते हुए हमसभी अपने इस सफ़र पर लगातार आगे बढ़ रहे थे.
वैशाली, वर्तमान में बिहार राज्य का एक जिला है, परन्तु इसका इतिहास काफी रोचक और व्यापक है. मानव सभ्यता के उदयकाल में यहीं आर्यों और अनार्यों ने आपसी सहयोग का सिद्धांत बनाया था. यहीं वैष्णव और शैव विचारधाराओं का मेल हुआ था एवं समुंद्र-मंथन की मंत्रणा भी यहीं की गयी थी. ऋग्वेद संहिता का पहला क्रम महर्षि बाभ्रव्य ने यहीं निरुपित किया था. वैदिक ऋषियों में महर्षि पुलस्त, वृहस्पति, संवर्त, दीर्घात्मा, उत्तात्य और मंकन के यहाँ आश्रम थे. यहीं वृहस्पति के पुत्र भारद्वाज ऋषि का जन्म हुआ था. वाल्मीकि रामायण के अनुसार सिधाश्रम से जनकपुर जाते समय महर्षि विश्वामित्र और लक्ष्मण के साथ भगवान राम भी यहाँ आये थे.
वैशाली, करीब 600 ईसवीं पूर्व में शक्तिशाली लिच्छवी गणराज्य की राजधानी थी. यहीं लोकतंत्र की स्थापना हुयी थी, इसलिए इसे लोकतंत्र की जननी (Mother of Democracy) भी कहा जाता है. इस नगर को जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर की जन्मस्थली होने का गौरव प्राप्त है, वहीँ इसका भगवान बुद्ध और बौद्धधर्म से भी पुराना संबंध रहा है. भगवान बुद्ध ने अपने जीवन के अनेक वर्ष यहीं व्यतीत किये और अंत में अपने निर्वाण की घोषणा भी इसी वैशाली में की. इनके जीवन से संबंधित आठ अनोखी घटनाओं में से एक बन्दर द्वारा इन्हें मधु भेंट करना यहीं घटित हुई. साथ ही, यह द्वितीय बौद्ध संगीति के आयोजन का भी साक्षी रहा है.
इस तरह, वैशाली के बारे में चर्चा करते हुए आखिर वो घडी भी आ गयी जिसका हमसभी को इन्तजार था. हम लोग इसकी धरती पर पहली बार कदम रखने जा रहे थे, और हमारी आँखों के सामने दिख रहा था राजा विशाल का गढ़.
भागवत महापुराण के अनुसार राजा विशाल, विशाल वंश के एक महान प्रतापी राजा थे. इन्होंने ही विशालापुरी नामक नगर की स्थापना की,इसलिए इन्हीं के नाम पर इस नगर का नाम विशाला, फिर विशालापुरी और अंत में वैशाली हो गया. राजा विशाल का यह गढ़ वास्तव में प्राचीन ईटों से बना एक विशाल टीला है,जो करीब 60 एकड़ में फैला है. यहाँ के स्थानीय लोगों से बात करने के क्रम में पता चला कि यही वह स्थान है जो पुराने समय में वैशाली का पार्लियामेंट हुआ करता था. यहीं 7777 जनप्रतिनिधि एक साथ बैठ कर राज्य की समस्याओं का समाधान निकाला करते थे.
यहाँ के पुराने ईटों पर चलते हुए ऐसा लग रहा था मानों बिखरे पड़े ये अवशेष जनहित से जुड़ी उन दिनों के ऐतिहासिक निर्णयों की वो दास्ताँ बयां कर रहे है,जो सदियों पहले यहाँ लिए जाते थे. यहाँ अभी तक जो भी खुदाइया हुयी है,उससे कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अवशेष निकले है,जिन्हें कोलकाता,पटना और वैशाली के म्यूजियम में रखा गया है.
राजा विशाल के इस गढ़ को देखने के बाद हम सभी आगे बढ़े और पहुंचे वर्ल्ड पीस पैगोडा यानि विश्व शांति स्तूप. जापान बौद्ध संघ के अध्यक्ष निचीदात्सु फ्युजी गुरूजी और बिहार के तत्कालीन राज्यपाल डॉ. ए.आर.किदवई ने अभिषेक पुष्करणी के दक्षिणी किनारे पर सन 1983 ईस्वी. में इस स्तूप की आधारशिला रखी थी. द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम चरण में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर हुए परमाणु हमले की घटना को देख कर निचीदात्सु फ्युजी गुरूजी ने पुरे विश्व में स्तूपों के निर्माण कार्य का शुभारंभ किया.
इसका उदेश्य प्रेम एवं शांति का उपदेश देना और पृथ्वी पर पवित्र भूमि का सृजन करना था. इन्ही के निर्देशन में जापानी संस्था ‘निप्पोनजान म्योहोजी’ और ‘राजगीर बुद्ध विहार सोसायटी’ ने मिलकर यहाँ विश्व शांति स्तूप का निर्माण किया. यहाँ की सबसे खास बात यह है कि इसके नींव एवं कंगूरे को सोने से पालिश कर इसमें गौतम बुद्ध के अवशेषो को सुशोभित किया गया है. इस गोल स्तूप में लगे विभिन्न अवस्थाओं में भगवान बुद्ध की भव्य और सुन्दर प्रतिमाओं को देख अन्दर से हमारे मन में भी एक असीम सी शांति महसूस हो रही थी. उस वक़्त ऐसा लगा मानों हमारे पास अचानक एक पॉजिटिव सी एनर्जी आ गयी हो.और इसी शक्ति से अभिभूत हम आगे बढ़े.
इस स्तूप के बगल में ही एक तालाब है, जो अभिषेक पुष्करणी के नाम से जाना जाता है. कहा जाता है कि प्राचीन समय में लिच्छवी गणों का अभिषेक इसी जल से किया जाता था,इस कारण प्राचीन बौद्ध साहित्य में इस जगह का बड़ा अच्छा वर्णन किया गया है. अभी इस तालाब को सुन्दर बनाने की तैयारी चल रही है. इसी क्रम में यहाँ बोटिंग की भी शुरुआत हुयी है. इसका भी लुत्फ़ हमलोगों ने जमकर उठाया और एक दुसरे को पानी से भिंगो कर खूब मजे किए.
पानी से अठखेलियाँ करने के बाद हमलोग पहुंचे बौद्ध रेलिक स्तूप, इसे भगवान बुद्ध का शरीरावशेष स्तूप भी कहते है. यह स्तूप भगवान बुद्ध के पार्थिव अवशेष पर बने 8 मौलिक स्तूपों में से एक है.
बौद्ध मान्यताओं के अनुसार बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद कुशीनगर के मल्लों द्वारा उनके शरीर का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया तथा अस्थि अवशेषों को 8 भागों में बांटा गया,इसमें से एक भाग वैशाली के लिच्छवियों को भी मिला था.
भगवान बुद्ध के मिले उन अस्थि-अवशेषों पर करीब 5वीं शती ई.पू. में 8.07 मी. व्यास वाला मिट्टी का एक छोटा सा स्तूप बना दिया गया,जिसका पुन: मौर्य,शुंग, व कुषाण कालों में पक्की ईटों से विस्तार किया गया,फलत: इस स्तूप का व्यास बढ़ कर 12 मी. हो गया. इस स्तूप का उत्खनन काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, पटना द्वारा 1938 ई. में किया गया था.
इस खुदाई से एक प्रस्तर-मंजूषा मिली, जिसमें भगवान बुद्ध के शरीरावशेष के अतिरिक्त एक कौड़ी,कुछ मनके,सोने की पत्ती के टुकड़े तथा तांबे की मुद्रा रखी हुयी थी. वर्त्तमान में यह मंजूषा पटना संग्रहालय में रखी गयी है.
इस जगह और यहाँ के इतिहास से परिचित होने के बाद हम फिर आगे बढ़े और पहुंचे वैशाली संग्रहालय. अभिषेक पुष्करणी के उतरी किनारे पर स्थित इस म्यूजियम की स्थापना, स्थानीय वैशाली संघ द्वारा संचालित संग्रहालय के विलय के साथ 1971 ई. में हुयी थी.इसमें वैशाली के प्राचीन टीलों के उत्खनन तथा सतह से प्राप्त पुरावशेषों का संग्रह है,जो लगभग 6 शताब्दी से 12वी शती से सम्बन्धित है.
यहाँ पत्थर की प्राचीन मूर्तियाँ,पशु-पक्षी की आकृतियाँ,हाथी-दांत तथा सीप से बनी वस्तुएं काफी सहेज कर रखी गयी हैं. इसके अलावा, यहाँ संग्रहित पुराने समय में प्रयोग किये जाने वाले पत्थरों के आभूषण,मुद्राएं,रजत व कांस्य के सिक्कों ने हमें काफी आकर्षित किया.
म्यूजियम के अन्दर फोटो लेने की मनाही थी,अत: इन पुराने पर सुन्दर और कलात्मक चीजों को अपने कैमरे में कैद करने से हम चूक गये. हालाँकि, हमने जी भर कर वहां के हर एक वस्तु को देखा, जो हमें अपने अतीत से रु-ब-रु करा रही थी.
यहाँ से बाहर निकलने पर हमने देखा की हमारे साथ-साथ सूरज भी अपनी यात्रा पूरी करने की जल्दी में बड़ी तेजी से पश्चिम की ओर भाग रहा था. शाम होने वाली थी और हमसब भी अपने सफ़र के अंतिम पड़ाव पर पहुँच चुके थे. इस आखिरी मोड़ पर अब बारी थी उस ऐतिहासिक अशोक स्तम्भ की, जिसे देखने की ललक ने ही हमें यहाँ आने पर विवश किया था.
अभिषेक पुष्करणी से लगभग 4 किलोमीटर उत्तर कोलुआ गाँव में बलुई पत्थर से बने सिंह स्तम्भ को देखने के लिए हमने पहले पुरातत्व विभाग के बने टिकट काउंटर से 10-10 रु. का टिकट लिया और फिर गेट से अन्दर दाखिल हुए.अन्दर हरे-हरे घास और पेड़-पौधों की हरियाली के बीच सम्राट अशोक द्वारा निर्मित अशोक स्तम्भ गडा था. स्थानीय लोगों में लाट के नाम से प्रचलित यह स्तम्भ लगभग 11मी. ऊँचा है.
इसके उपरी भाग में एक उलटे कमल दल की आकृति पर एक चौकोर पत्थर रखा है. इस पर उत्तर दिशा की ओर बैठे एक सिंह की आकृति बनी है.लगता है यह स्तम्भ सिंह सहित एक ही पत्थर का बना है,क्योंकि देखने पर इसके पत्थरों के जुड़ाव का कही कोई निशान नही मिलता है. यह सम्राट अशोक द्वारा स्थापित किये गये उन प्रारंभिक स्तंभों में से एक है जिस पर उनका कोई अभिलेख नही है. पुरातत्त्व विद्वान कनिंघम ने इस पत्थर स्तम्भ को उखाड़ने का पूरा प्रयास किया था,पर वह इसमें असफल रहे.
इसलिए ऐसा लगता है यह स्तम्भ जमीन की सतह से काफी नीचे तक गड़ा हुआ है. स्तम्भ के ठीक सामने पक्के ईटों से बना एक विशाल स्तूप है,जो वानर-प्रमुख द्वारा भगवान् बुद्ध को मधु अर्पित करने की घटना का प्रतीक है. यह मूलतः मौर्यकाल में बना था,परन्तु इसका विकास कुषाणकाल में हुआ और इस स्तूप के चारों ओर एक चौड़े सड़क का निर्माण किया गया,जिसे प्रदक्षिणा पथ कहा जाता है.
यहीं अशोक स्तम्भ के ठीक सटे दक्षिण किनारे पर पक्के ईटों का बना सरोवर है. स्थानीय लोगों के अनुसार,इसे वानरों ने भगवान बुद्ध के लिए बनाया था. इस कारण इसे बंदरों का सरोवर या मर्कट हद भी कहते है. इसके बारे में कहा जाता है कि एक बार भगवान बुद्ध यहाँ ठहरे थे.
उन्होंने कुछ दिनों का उपवास रखा था और जिस दिन उनको उपवास ख़त्म करना था,उसी दिन कुछ बन्दर निकल कर आये और उनके भिक्षापात्र को उठा कर ले गये फिर कुछ ही देर में उसमे लीची एवं मधु भरकर उनके सामने रख दिया. बौद्ध-साहित्य में यह एक बहुत ही बड़ी घटना मानी जाती है. वैशाली के इन तमाम स्थानों को देखते और इसके इतिहास को समझते, पता ही नही चला समय कैसे इतनी जल्दी पार हो गया. ऊपर आसमान में भी पंछी अपने घोसलों की ओर उड़ान भर रहे थे, और अब हमें भी अपने अपने घर पहुँचने की जल्दी थी.