बनारस भ्रमण…मंदिरों और घाटों के दर्शन के बाद अगले दिन हमलोगों ने रामनगर किला की ओर रुख किया. वाराणसी शहर से यह 14 किलोमीटर की दूरी पर गंगा के पूर्वी किनारे पर स्थित है. यहां महाराजा काशी का किला है जिसका निर्माण काशी नरेश महाराजा बलवंत सिंह ने 1750 ई. में करवाया था. बाइक और स्कूटी से हमलोगों का यहां आना भी यादगार रहा. कारण कि पहली बार पीपा पूल पर मैं स्कूटी चलाते हुए गंगा को पार कर रहा था. पीपा पूल पर स्कूटी चलाने में मजा भी आ रहा था तो डर भी लग रहा था. नीचे गंगा अपनी तेज प्रवाह में बह रही थी तो ऊपर इस पूल पर मेरी स्कूटी लकड़ी के उन टूटे दरख्तों पर कभी धीमे होती तो कभी लोहे की चादरों पर तेज गति में भागते हुए आगे बढ़ रही थी.
जून महीने का यह दोपहर एक तो वैसे ही आसमान से आग बरसा रहा था. उस पर से जब पूल से उतर कर जमीन पर आये तो मिला गर्म रेतों का टीला. जिससे गुजरना मानों अंगारों से होकर जा रहे हों. खैर इन उबड़ खाबड़ रास्तों को पार कर अब हमलोग रामनगर में प्रवेश कर चुके थे. और सामने दिख रहा था बनारस का वो भव्य विरासत जिसके गर्भ में इतिहास की न जाने कितनी जानी अंजानी कहानियाँ दफ़न थी. लाल बलुआ पत्थरों से बने इस किले का निर्माण मुग़ल वास्तुकला के अनुसार किया गया है. पार्किंग में अपनी अपनी गाड़ी लगा कर हमलोग किले के अन्दर दाखिल हुए. यहां यह जान कर आश्चर्य हुआ की इस किले में अभी भी काशी नरेश के उतराधिकारी रहते हैं जो वाराणसी के महाराजा के रूप में जाने जाते हैं. और सबसे दिलचस्प तो ये लगा कि यहां राजा-प्रजा वाला वो पुराना चलन आज भी जिन्दा है.
इस किले के एक भाग को संग्रहालय का रूप देकर इसे आम लोगों के लिए खोल दिया गया है. जिसे देखने के लिए आपको 20 रूपए का टिकट लेना होगा. साथ में अगर 5 साल से ऊपर 10 साल तक के बच्चे हो तो उनके लिए 10 रूपए का टिकट आपको लेना पड़ेगा. तभी म्यूजियम के अन्दर आपको जाने दिया जाएगा. वैसे यहां के संग्रहालय देखने के बाद आपको टिकट के दाम कम ही लगेंगे, क्योंकि वाकई में यहां का संग्रहालय काफी समृद्ध है. इस संग्रहालय को सरस्वती भवन के नाम से जाना जाता है, जिसके अन्दर जाने पर आपको राजसी ठाठबाट की कई पुरानी चीजें नजर आएँगी. अगर आपने पुरानी फोर्ड, विंटेज कारें नहीं देखी हो या फिर रत्नों, हाथी दांत से बनी पालकी या अलग अलग प्रकार के पुराने शस्त्र तो ये सारी चीजें आपको यहां देखने को मिल जायेंगी. यहां के म्यूजियम में उस वक़्त प्रयोग होने वाली तलवारों से लेकर देशी-विदेशी छोटी-बड़ी बंदूकें, राइफल भी मौजूद है. इसके साथ ही कई प्रकार के वाद्ययंत्र भी दिखा. पर सबसे अद्भुत लगा यहां रखा वो बड़ा और दुर्लभ खगोलीय घड़ी. जो न केवल समय बताती है बल्कि साल, महिना, सप्ताह और दिन के साथ साथ सूर्य, चन्द्र और अन्य ग्रहों का खगोलीय विवरण भी देती है. इस घड़ी का निर्माण वर्ष 1852 में बनारस के शाही दरबार के खगौलविद मूलचंद ने किया था. मैं बड़े गौर से इतनी बड़ी घड़ी देख रहा था तभी रोहित जी ने बताया की इसे बनाने वाले वो शख्स उनके ही पूर्वज है, तो मेरी भी आंखों में चमक आ गयी.
म्यूजियम में फोटो लेने की मनाही थी इसलिए वहां फोटो तो नहीं ले पाया पर जब म्यूजियम से बाहर आये तो नीचे दरवाजे के पास हमलोगों ने मोबाइल और कैमरों से खूब तस्वीरें उतारी. फिर किले के पीछे वाले भाग की ओर बढ़े. उधर सीढियों से होकर गुजरते समय ऊपर दीवारों पर ढेर सारे छोटे बड़े चमगादड़ चिपके हुए थे. किले के पीछे गंगा बह रही थी और नजर आ रहा था वही पीपा पूल, जिससे होकर हमलोग यहां पहुंचे थे. किले की खूबसूरती यहां से देखने में बन रही थी.
यहां घूमते हुए काफी वक़्त हो गया था, इसलिए हमलोग किले से बाहर निकल गए. हां लेकिन निकलते निकलते किला परिसर में रखे तोपों के साथ फोटो खिचवाने का मोह नहीं त्याग सके.
यहां से चलते हुए रामनगर के फेमस लस्सी दुकान पर भी हमलोगों की बाइक रुकी. यहां की कुल्हड़ वाली लस्सी वाकई लाजवाब थी. अपने बेहतरीन स्वाद के कारण ही यहां लस्सी की बिक्री सालोभर होती है और घूमने आने वाले लोग यहां रुक कर लस्सी जरुर पीते है. मानो जैसे ये कोई परंपरा हो गयी हो कि रामनगर किला देखने के बाद लस्सी पीनी है वो भी इसी दूकान की.
चिलचिलाती धूप में लस्सी की ठंडक से कुछ राहत मिली तो रामनगर से हमलोग फिर निकल पड़े अपने अगले पड़ाव की ओर. अब हमारी गाड़ी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की ओर बढ़ रही थी. बीएचयू यानी सर्व विद्या की राजधानी. 1916 में इसकी स्थापना महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने की थी. 1300 एकड़ में फैला यह विश्वविद्यालय एशिया का सबसे बड़ा आवासीय विश्वविद्यालय है. इसके अन्दर दाखिल हुए तो यहां चारों तरफ बिखरी हरियाली ने मन मोह लिया. यहां भी पहली बार ही आया था. यूनिवर्सिटी कैम्पस की सड़कों पर स्कूटी के साथ साथ मेरी नजरें भी इधर उधर दौड़ रही थी. यहां से पत्रकारिता की पढ़ाई करने का कितना मन था मेरा. याद आ गए कॉलेज लाइफ के वो बीते साल, जब ग्रेजुएशन का फाइनल इयर था और मैंने उसी वक़्त बीएचयू एंट्रेंस एग्जाम के लिए अप्लाई किया था. पर ग्रेजुएशन और एंट्रेंस एग्जाम का डेट मैच करने के कारण मुझे वो परीक्षा छोडनी पड़ी. यादों के जंगल से गुजरते हुए अचानक सामने नजर आया बीएचयू का पत्रकारिता विभाग. सोचा यहां की डिग्री नहीं ले सका तो एक सेल्फ़ी ही लेता चलूँ.
दरअसल बनारस में काशी विश्वनाथ के दो मंदिर है, एक सबसे पुराना तो दूसरा नया जो बीएचयू कैम्पस में है. पुराने वाले मंदिर का दर्शन हमलोग पहले ही कर चुके थे, इसलिए अब यहां नए मंदिर का दर्शन करने आये थे. पुराने मंदिर की अपेक्षा ये नया वाला विश्वनाथ मंदिर काफी बड़ा और सुन्दर दिखा. यहां मंदिर के मुख्य कक्ष जहां बाबा विश्वनाथ स्थापित हैं वहां फोटो लेने की मनाही थी, इस कारण वहां तो फोटो क्लिक नहीं कर पाया लेकिन उसके बाहर मंदिर परिसर में हमलोगों ने कैमरे और मोबाइल से कई सारे स्नेप्स लिए. इस मंदिर में आने के बाद ऐसा लग रहा था कि जैसे बीएचयू का ये भी कोई क्लास रूम ही हो, ऐसा इसलिए क्योंकि मंदिर के ऊपर नीचे हर जगह लड़के लडकियां पढ़ाई करते दिख रहे थे. कोई नोट्स बनाने में बिजी था तो कोई किताब हाथ में लिए रिविजन करने में लगा था. पूजा करने और घुमने आने वाले लोगों से ज्यादा यहां पढने वाले ही नजर आ रहे थे. खैर हमलोगों ने बाबा विश्वनाथ के दर्शन किया, और फिर वहीँ एक किनारे बैठ गए और कुछ वक़्त उनके सानिध्य में बिताया. मंदिर में बड़ी शांति थी. जिसके कारण मन भी बड़ा शांत लग रहा था.
यह मंदिर रोजाना सुबह 8 बजे खुलता है, फिर दोपहर 12 बजे से 1 बजे तक बंद रहता है. शाम में 7 बजे मंदिर में भगवान विश्वनाथ का स्नान और श्रृंगार किया जाता है, और उसके बाद मंदिर के किवाड़ रात 9 बजे बंद हो जाते हैं. इस दौरान मंदिर में पांच आरतियाँ होती है. सुबह 4:45 बजे पहली आरती होती है जिसे मंगल आरती कहते हैं. उसके बाद पूर्वाहन 12 बजे शयन आरती होती है. अपराहन 1 बजकर 5 मिनट पर जागरण आरती की जाती है. मंदिर में मुख्य आरती रात 7:45 बजे की जाती है. और फिर रात 8:45 बजे अंतिम आरती शयन आरती होती है.
अब शाम होने लगी थी. हमलोगों ने बाबा विश्वनाथ को पुनः प्रणाम किया और उनसे विदा लेकर निकल पड़े अस्सी घाट की ओर. अस्सी घाट… वरुणा और अस्सी नदियों के संगम का घाट. जो गंगा नदी के तट पर दक्षिण की ओर सबसे अंतिम घाट है. कहा जाता है कि तुलसीदास जी ने अस्सी घाट पर एक गुफा में रहकर रामचरितमानस की रचना की थी. 19वीं शताब्दी के बाद यह 5 घाटों अस्सी, गंगामहल, रीवा, तुलसी और भदैनी घाटों में विभाजित हो गया. बनारस का यह घाट सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक रूप में अति महत्वपूर्ण तो है ही, साथ ही उपन्यासों और फिल्मों ने भी इसे काफी चर्चित कर दिया है. यही भगवन जगन्नाथ का प्रसिद्ध मंदिर भी है.
शाम में जब हमलोग यहां पहुंचे तो गंगा आरती की तैयारी हो रही थी. और घाट पर लोगों की भीड़ जुटनी शुरू हो गयी थी. घाट पर लगी कुर्सियों पर बैठ यहां हमलोगों ने चाय की चुस्कियों के साथ अपनी शाम बिताई. अस्सी घाट हमारे बनारस भ्रमण के अगले भाग का अंतिम पड़ाव था. यहां से निकलते वक्त हमने माँ गंगा को प्रणाम किया. वैसे उत्तर प्रदेश में रह कर माँ गंगा से विभिन्न यात्राओं के दौरान अभी कई दफा मुलाकात होनी थी इसलिए ये पूरी यात्रा निर्विघ्न समाप्त हो इसकी प्रार्थना की.
बनारस की विरासत संजोये रखने वाले रामनगर किला, कला-संगीत और शिक्षा का मुख्य केंद्र बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, और अस्सी घाट घूमने के बाद अगली यात्रा बौद्धधर्मावलम्बियों की देवभूमि कहे जाने वाले सारनाथ की होगी. इन्तजार कीजिये जल्द ही आपको भी कराएँगे सारनाथ के दर्शन.