शिप्रा नदी के किनारे बसा उज्जैन मध्यप्रदेश का सबसे प्राचीन शहर है. यह विक्रमादित्य के राज्य की राजधानी थी, तो इसे कालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है. महाकाल की इस नगरी से हाल ही में पटना की पत्रकार नीतू सिन्हा घूमकर लौटी है और शेयर कर रही हैं अपनी यात्रा संस्मरण.
जीवन के रंग और राग को जोड़ मन में अध्यात्म की सुनहरी रौशनी भरता है उज्जैन. शिप्रा नदी के तट पर बसे महाकाल की भूमि उज्जैन. यहाँ स्थित है भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग. कहते है महाकाल के दर्शन मात्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है. मेरे बेटे के जन्म के बाद यह मेरी पहली यात्रा थी. मुझे उम्मीद भी नहीं थी की बेटे के जन्म के तीन महीने बाद ही मुझे भगवान महाकालेश्वर के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो जायेगा. शायद यह सच ही कहा जाता है कि भगवन की इच्छा होती है तभी वो अपने भक्तों को अपने पास बुलाते हैं. मेरे साथ भी बिलकुल ऐसा ही हुआ. दरअसल घर में एक दिन बातों ही बातों में मेरे छोटे भैया ने उज्जैन जाने का जिक्र किया. जिसके बाद सबने महाकाल के दर्शन और उनकी पूजा करने की योजना बनाई. जिसमें हमलोग भी शामिल हो गए. संयोगवश छुट्टी भी थी, इसलिए मेरे पति भी साथ चलने को सहर्ष तैयार हो गए. हमलोग पटना से उज्जैन के लिए रवाना हुए. सुबह 11 बजे हमारी ट्रेन थी. दूसरे दिन शाम करीब चार बजे उज्जैन की धरती पर हमने कदम रखा. उधर से ही छोटा भाई भी दिल्ली से उज्जैन पहुंच गया था. स्टेशन से पांच किमी की दूरी पर भगवान महाकालेश्वर का प्रमुख मंदिर है. महाकालेश्वर की नगरी में प्रवेश करते वक़्त मन में एक अलग आध्यात्मिक अनुभूति हो रही थी. संयोग से मंदिर के पास ही एक होटल में हमें कमरा मिल गया. जहाँ से तैयार होकर शाम में मंदिर के दर्शन के लिए हमलोग निकले. मंदिर एक विशाल परिसर में स्थित था, जहाँ कई देवी देवताओं के छोटे बड़े मंदिर बने है. मंदिर के मेन गेट से गर्भगृह तक जाने के लिए थोड़ी दूरी तय करनी पड़ती है. गर्भगृह के अंदर जाने के लिए पक्की सड़कें बनी है. वहीँ, यहाँ का मंदिर तीन खंडों में विभाजित है. सबसे ऊपर श्री नागचंद्रेश्वर मंदिर है, बीच में ओंकारेश्वर और निचले खंड में महाकालेश्वर स्थित है. मंदिर के गर्भगृह में भगवान महाकालेश्वर का विशाल दक्षिणमुखी शिवलिंग है. यहीं माता पार्वती, भगवान गणेश और कार्तिकेय की मूर्ति है. गर्भगृह में ही सदैव प्रज्जवलित रहने वाला एक दीप भी स्थापित है.
हमलोग उज्जैन के चारदिवसीय यात्रा पर निकले थे, ऐसे में महादेव और उनकी भस्म आरती में शामिल होने के लिए हमारे पास पर्याप्त वक़्त था. रोज अहले सुबह होने वाली भगवान की भस्म आरती के लिए पहले से ही बुकिंग होती है और कई प्रक्रियाओं को पूरा करना होता है. एक दिन पहले दोपहर 2:30 बजे तक आवेदन देकर मंदिर प्रशासन से इसकी अनुमति लेनी पड़ती है. इसके लिए फ़ोटो वाली पहचान पत्र का होना जरूरी होता है. वहीं 7 बजे आरती में शामिल होने वाले लोगों की सूची प्रकाशित होती है, जिसके बाद रात 7:30 से 10 बजे के बीच भस्म आरती के लिए अनुमति पत्र का वितरण किया जाता है. अनुमति पत्र मिलने के बाद भक्त देर रात से ही लंबी लाइन में लग्न शुरू कर देते हैं.
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जानकारी मिली कि भस्म आरती में शुरु के करीब सौ लोग ही जलाभिषेक कर सकते हैं. इसलिए लाइन में आगे लगने के लिए लोगों में होड़ रहती है. दूसरे दिन हमसब ने भी आरती में शामिल होने के लिए अनुमति ली और उसी रात 11 बजे भक्तों की कतार में आकर खड़े हो गए. जिस वक़्त हमलोग पहुंचे थे उसी समय लाइन में पहले से करीब सौ से अधिक लोग हमारे आगे खड़े थे. खैर लंबे इंतजार के बाद सुबह चार बजे गेट खुला और हमलोगों ने अंदर प्रवेश किया. अंदर जाने के लिए एक बार फिर फ़ोटो युक्त पहचान पत्र दिखाना पड़ा. छुट्टी का दिन होने और भीड़भाड़ को देखते हुए मंदिर प्रशासन की ओर से जलाभिषेक करने की अनुमति किसी को नहीं मिली. यहां यह भी बता दूँ कि इस आरती में शामिल होने के लिए पुरूषों को धोती और महिलाओं का साड़ी पहनना अनिवार्य है.
हम सब भष्म आरती में शामिल हुए. इस दौरान हमने देखा की जब महादेव को भष्म लगाया जा रहा था तब मंदिर के पंडितों ने वहां मौजूद सभी महिलाओं को कुछ देर के लिए अपना चेहरा ढंक लेने को कहा. यह अपने तरह की एकमात्र ऐसी आरती है जो पूरी दुनिया में सिर्फ यही होती है. सुबह चार बजे होने वाली इस आरती के लिए भगवान को जगाया जाता है, उनका जलाभिषेक कर श्रृंगार किया जाता है. उसके बाद शमशान घाट से लायी ताजी चिता की राख को ज्योतिर्लिंग पर छिड़का जाता है. सबसे आश्चर्य की बात यह लगी कि इंसान के मरने के बाद जब हम उसका दाह संस्कार कर लौटते हैं, तो स्नान सहित कई नियम पूरा कर खुद को शुद्ध करते हैं. उसके बाद ही घर के अंदर प्रवेश करते हैं. लेकिन यहाँ उसी चिता के भस्म से भगवान की आरती हो रही थी, बताया गया कि महाकालेश्वर के स्पर्श से वो भस्म शुद्ध और पवित्र हो जाता है. हालांकि चिता की भस्म को लेकर भी लोगों में संशय की स्थिति दिख रही थी, लोगों के अनुसार आजकल शिवलिंग पर चिता के स्थान पर गोबर के कंडे का भस्म लगाया जाता है.
बहरहाल जो भी हो लेकिन उज्जैन आकर महाकालेश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन कर उनकी भस्म आरती में शामिल होने का अनुभव मन को आध्यात्म के आनंद से सराबोर कर गया. रातभर का जागरण और लंबी कतार में घंटों खड़े रहने से जो थकावट शरीर को महसूस हो रही थी, महाकाल के दर्शन के बाद वो गायब हो गयी थी. महाकालेश्वर के दर्शन के बाद हम उज्जैन से अपने आगे की यात्रा इंदौर के लिए निकल पड़े.
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