जमशेदपुर शहर के बाद अगले दिन हमारी प्लानिंग रजरप्पा स्थित माँ छिन्नमस्तिके मंदिर घुमने की थी. मंदिर तय समय पर पहुंच जाए, इसके लिए हमलोग रात 3 बजे ही अपनी अलग अलग दो गाड़ियों में बैठकर रजरप्पा के लिए रवाना हो गए.
एक तो दिसम्बर का वो सर्द महीना और ऊपर से रात के आखिरी पहर में लंबे सफ़र पर निकलना, इस यात्रा में परेशानी तो थी पर माता रानी के दर्शन की असीम उत्कंठा ने हमारे उत्साह में कोई कमी नहीं आने दी. वहीँ रात के इस सफ़र में गर्मागरम चाय की चुस्की ने भी हमें पूरी तरह तरोताजा रखा. रास्ते में जब भी किसी को चाय की तलब लगती हमारी गाड़ी हाईवे पर बने ढाबे की ओर मुड़ जाती. इससे दो फायदे होते, एक तो स्वादिष्ट गर्म कटिंग चाय मन को तृप्त करती, तो वहीं, ढाबे की रसोई में चूल्हे के पास खड़े रहने का मौका मिल जाता, जिससे हाड़ कंपा देने वाले ठंड में कुछ देर के लिए आग की गर्माहट बड़ी राहत देती.
इस तरह हमलोगों के हंसी मजाक और मस्ती के बीच धीरे धीरे आसमान में फैला स्याह अंधेरा भी अब हटता जा रहा था और उसकी जगह सूर्य की लालिमा अपना स्थान ले रही थी. इस बीच पेड़ों की हरियाली, खेतों में लगी फसलें, पहाड़ियों, उगते सूर्य का वो अनुपम दृश्य उबड़ खाबड़ रास्तों से गुजरते वक़्त बड़ा अच्छा दिख रहा था, जिसे अपने मोबाइल में कैद करते हम लगातार अपनी मंजिल पर आगे बढ़ रहे थे.
रजरप्पा झारखंड स्थित हरे-भरे छोटानागपुर क्षेत्र के रामगढ़ जिले में है. यहां मंदिरों का एक समूह है, जहां सबसे ज्यादा प्रसिद्ध छिन्नमस्तिका मंदिर है. ये मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है. आपको बता दें की इससे पहले माँ के 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ विन्ध्यांचल का भी दर्शन विन्ध्याचल यात्रा, बनारस भ्रमण के दौरान किया था. रजरप्पा के बारे में कहा जाता है कि प्राचीन काल में यहां राजा रज और उनकी रानी रप्पा ने संतान प्राप्ति के लिए छिन्मस्तिका माँ की पूजा की थी. जिसके फलस्वरूप उन्हें संतान की प्राप्ति हुई थी, तभी से इस स्थान का नाम रजरप्पा पड़ा.
जब हमलोग यहां पहुंचे तब तक दिन के दस बज चुके थे. रजरप्पा की पावन धरती पर पहली बार कदम रख रहा था. गाड़ी से उतरते वक़्त मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया जिनके आशीर्वाद से कुछ देर बाद माँ छिन्मस्तिके हमें दर्शन देने वाली थी. सामने एक बड़ा मैदान था. वहीं आसपास कई होटल थे, उनमें से एक होटल को हमलोगों ने खाना बनाने के लिए बुक किया.
दरअसल रजरप्पा मंदिर में बकरे, जिसे स्थानीय लोग पाठा कहते है, उसकी  बलि चढ़ाई जाती है. मंदिर की यह परंपरा यहां सदियों से चली आ रही है. हमलोगों ने भी होटल वालों को खाना बनाने की सामग्री और पैसे दिया और फिर निश्चिन्त होकर आगे नदी में नहाने चल पड़े. यहां मंदिर के बगल में भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी का संगम है, जहां स्नान के बाद ही भक्त मंदिर के अन्दर दर्शन करने जाते हैं.
यहां का नजारा बेहद खुबसूरत लगा. पश्चिम दिशा से कल कल करती आ रही दामोदर और दक्षिण से भैरवी दोनों नदियाँ यहां एक दुसरे में समाहित हो रही थी. उसके साथ ही छोटे छोटे पत्थरों का नदी के साथ बहना देख कर काफी अच्छा लगा. वाकई ये नजारा मंदिर की खूबसूरती में भी चार चाँद लगा रहे थे. इस नदी में जब उतरे तो पानी बेहद ठंडा था, पर उसकी परवाह न करते हुए हमलोगों ने उस संगम में नहाने का पूरा मजा लिया. बनारस और विन्ध्यांचल में जिस तरह गंगा नदी में मस्ती की थी, वैसे ही यहां भी हमने देर तक पानी में एन्जॉय किया.
नहाने के बाद अब बारी थी पूजा की इसलिए तैयार होकर अब हमलोग चल पड़े माँ छिन्मस्तिके मंदिर की ओर, रास्ते में एक दूकान से हमलोगों ने फूल-प्रसाद वगैरह ख़रीदा और मंदिर के अन्दर प्रवेश कर गए. यहां काफी भीड़ थी, श्रद्धालु लम्बी कतारों में लग कर अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे. हमलोग भी इसी भीड़ का हिस्सा बन गए.
मंदिर के अन्दर जब प्रवेश किया तो माँ के अलग स्वरूप का दर्शन हुआ. ऐसा डरावना रूप अब तक किसी मंदिर में मैंने नहीं देखा था. उत्तर की ओर बने दीवार के साथ एक शिलाखंड है जिसपर दाएं हाथ में तलवार और बाएं हाथ में अपना ही कटा सर लिए देवी काली का भयभीत करने वाला रूप अंकित था. गले में सर्पमाला और मुंडमाला धारण किए त्रिनेत्र वाली   माँ अपना बायां पैर आगे बढ़ाए कमल के फूल पर खड़ी हैं. जिसके नीचे शयनावस्था में रति और कामदेव हैं. इनके गले से रक्त की तीन धाराएं बाहर की ओर बह रही है जिसका रक्तपान इनके दोनों तरफ डाकिनी और शाकिनी और वो स्वयं भी कर रही हैं.
इस स्वरूप के पीछे एक पौराणिक कथा मानी जाती है. कहा जाता है कि माँ अपनी दो सहेलियों के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने आई थी. नदी में स्नान करने के बाद इनकी सहेलियों को तेज भूख लग गयी, भूख से दोनों का रंग काला पड़ने लगा, तब उन्होंने माँ से   खाना माँगा. जब उन्हें थोड़ा सब्र रखने को कहा गया तो वो भूख से बेहाल हो उठी. जिसे देख माँ से रहा नहीं गया और उन्होंने खड़ग से अपना ही सर काट दिया.
जिससे खून की तीन धाराएं निकलने लगी. बाएं हाथ में सर को पकड़े उन्होंने दो धाराएं अपनी सहेलियों की ओर बहा दिया और तीसरी धारा खुद पीने लगी. तब से छिन्नमस्तिके के इस रूप की पूजा होने लगी.
 मंदिर के अन्दर माँ का यह रूप हमें अन्दर से भयभीत तो कर ही रहा था साथ ही पंडों का व्यवहार भी परेशान करने वाला था. देश के अन्य मंदिरों की तरह यहां भी अधिकतर पंडे दान के नाम पर पैसा-उगाही करते दिखे. मंदिर के अन्दर पंडों को ‘खुश’ किए बगैर माँ के  दर्शन आप नहीं कर सकते. गर्भगृह के अन्दर जाने के लिए घंटों लाइन में खड़े रहकर श्रद्धालु परेशानी झेलते हैं, पर जब दर्शन की बारी आती है तो कुछ सेकंड भी नहीं लगता और अन्दर विराजमान पंडे उन्हें तुरंत बाहर का रास्ता दिखा देते हैं. ये अलग बात है कि जो लोग इन्हें मनचाहा चढ़ावा देते है उन्हें देर तक माँ के दर्शन और पूजा की खुली छुट मिलती है.
गर्भगृह से जब बाहर निकले तो मंदिर परिसर में ही एक जगह कच्चे धागे से बंधा कई पत्थर नजर आया, एक पुजारी वहीँ बैठे थे, पूछने पर पता चला कि इसे मनौती पत्थर कहते है.
लोग अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए यहाँ पत्थर बंधवाते है और जब उन्हें लगता है कि माँ ने उनकी मनौती पूरी कर दी तो वो मंदिर आकर बांधे पत्थर को खोलने की रस्म पूरी करते हैं. उधर से थोड़ा आगे और बढे तो बलि स्थान दिखा, जहां पाठा की बलि चढ़ाई जाती है, देखकर आश्चर्य हुआ की वहां एक भी मक्खी नजर नहीं आई. 
मंदिर से निकलकर कुछ दूर पैदल और आगे बढे, जहां महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबा धाम मंदिर, बजरंगबली मंदिर, शंकर मंदिर समेत कुल सात मंदिर थे. पर देखने में सब बिलकुल एक समान. इन मंदिरों के दर्शन कर के जब बाहर निकले तब तक करीब तीन बज चुके थे और भूख भी जबर्दस्त लगी थी. अब बारी होटल में जाकर उस प्रसाद को उदरस्थ करने की थी जिसे थोड़ी देर पहले माँ छिन्नमस्तिके मंदिर में चढ़ाया गया था.
होटल पहुंचे तो वहां गर्मागरम चावल और मीट पककर तैयार था, भूख के मारे जान निकली जा रही थी और सामने खाने की थाली थी, जिसे देख कर रहा नहीं गया और बस फिर क्या था, टूट पड़े उस पर. हालांकि मन में कई विचार भी उमड़ रहे थे, ईश्वर के प्रसाद के रूप में अब तक फल, मिठाई हलवा आदि ही चढ़ते-खाते देखा हूं, यह पहली बार था की यहाँ पहली बार प्रसाद के रूप में ‘इसे’ खा रहा हूं. 

 

खाना खाते खाते शाम भी ढलने लगी थी और अब हमें यहां से लौटना भी था. माँ छिन्नमस्तिके के आशीर्वाद और दर्शन के बाद रजरप्पा के इस पावन धरती को हमने प्रणाम किया और हमारी गाड़ी चल पड़ी टाटा की ओर, जहां से अगले दिन हमें वापस पटना लौटना था. 

 

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