पुरे परिसर में कई मंदिर. सूर्य भगवान, राम-जानकी, सीता माता, हनुमान जी के अलावा अन्य देवी-देवताओं की कई मूर्तियां. ऐतिहासिक और आस्था का प्रतीक शिव मंदिर भी. यह मंदिर पटना के अशोक राजपथ रोड पर है. बांकीपुर पोस्ट ऑफिस और पटना डेंटल कॉलेज के बीच से एक गली निकली है, जो अदालत घाट तक गयी है. अंतिम छोर पर यह प्राचीन अवस्थित है. वैसे तो इसका नाम श्री जगन्नाथ मंदिर है, पर मशहूर है यहां विद्ममान वर्षों पुराने शिवलिंग बाबा युगेश्वर नाथ के कारण.

माफ़ हो गई फांसी की सजा

अदालत घाट स्थित इस शिव मंदिर के पुजारी पंडित अवध नारायण मिश्र का कहना है कि यह मंदिर 200 से 300 साल पुराना है. तब यहां मंदिर नहीं था, खुले आसमान के नीचे शिवलिंग होता था. फांसी की सजा पाने वाले गया जिले के युगेश्वर नाथ नामक व्यक्ति यहां आये और इस शिवलिंग की पूजा करने लगे. बगैर अन्न-जल कई दिनों तक पूजा में लीन रहे. भोलेनाथ सुन भी लिए. वह सजा से मुक्त हो गये. बाद में उनके ही नाम से यह प्राचीन शिवलिंग भी बाबा युगेश्वर नाथ से प्रसिद्ध हो गया.

विकास से महरूम मंदिर

आज यह प्राचीन मंदिर अपनी सुन्दरता खोता जा रहा है. मंदिर की देखभाल करने वाले रवि मिश्रा कहते हैं, गंदगी से भक्त आना कम कर दिए हैं. गंगा मईया भी मुंह मोड़ लीं. सरकार का भी ध्यान नहीं है. सुलोचना देवी कहती हैं अपने स्तर से हमलोग साफ सफाई, रंग रोगन करते हैं.

अदालत घाट कैसे पहुंचेंगे लोग

अशोक राजपथ से अदालत घाट की ओर अंदर आने रास्ता बेहद संकीर्ण हो गया है. एक ओर गन्दा नाला बहता है तो दूसरी ओर छोटे छोटे मिट्टी के घरों में रहते मजदूरों का परिवार. पूरी तरह से गंदगी का साम्राज्य. रास्ते से एक रिक्शा भी निकल जाये तो गनीमत है. मजदूर बाड़न साव मिले. विकास की बात पूछने पर वहीँ लटकते बोर्ड की ओर इशारा कर दिए. इस पर लिखा था – शहरी झुग्गी – झोपड़ी विकास परियोजना.

ख़त्म हो गयी श्रावणी मेले की परंपरा

इस प्राचीन मंदिर के पास पहले सावन में मेला भी लगता था, पर अब नहीं. जानकारों का कहना है कि पहले इस मंदिर की ओर से सावन में विशाल सोमवारी मेला लगता था. पास स्थित सिविल कोर्ट परिसर में लगने वाले इस मेले में लोग दूर दूर से घुमने, खरीदारी करने और मेले में अपनी चीजें बेचने आया करते थे. करीब दो सौ से ढ़ाई सौ के बीच दुकानें लगती थी. उस मेले के बारे में याद करते हुए किरण वर्मा कहती हैं, उस वक़्त लकड़ी, लोहे से बने सामान खूब मिलते थे. बच्चे वहां मिलने वाले खेल-खिलौने की ओर आकर्षित होते थे, तो महिलाएं पूजा सामग्री और बिंदी-चूड़ी खरीदने में जुटी रहती थी. मिठाइयों की भी खूब बिक्री होती थी. उस दौर में अनारसा सबसे अधिक लोकप्रिय होता था. नारियल के मीठे लच्छे भी खूब बिकते थे. लक्ठो, कुटकी, पटउरा, गुड़ का बतासा, बादाम पट्टी की भी दुकानें लगती थी. पांच – छह साल से यह परंपरा ख़त्म हो गयी है. सिर्फ परम्परा ही नहीं, मंदिर की रौनक भी फीकी होती जा रही है.

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