फरवरी का ये आधा महीना घूमने फिरने में कब निकल गया पता भी नहीं चला. हालांकि फरवरी को लव मंथ कहा जाता है, लेकिन इसी मौसम में शायद ये प्यार भी खूब परवान चढ़ता है और शादियां भी खूब होती है. यही कारण है कि इस बार सेम डेट में होने वाली शादियों के कई निमंत्रण पत्र भी घर में आ गये थे.

अब सबके यहां जाना तो संभव नहीं था, लेकिन उन सभी में दो कार्ड ज्यादा महत्वपूर्ण थे. और उन दोनों जगह जाना भी बहुत जरुरी था. इनमें एक तो बिक्रमगंज (भोजपुर) में  बड़ी दी की ननद की शादी थी तो दूसरा, बक्सर में बुआ के बेटे अनुराग भईया की शादी में भी शरीक होना था. तो यही प्लान बना कि मम्मी-पापा दी के ससुराल जायेंगे और मैं बिक्रमगंज में तिलक और मड़वा में शामिल होकर फिर वहीँ से बक्सर के लिए निकल जाऊंगा. तो इस तरह दोनों जगहों पर खूब मजा आया.

शादी में शामिल कई रिश्तेदारों से मुलाकात हुई तो शादी के कई रस्मों को निभाना भी पड़ा. हाँ इनमें एक चीज़ मुझे काफी पसंद आई और वह था रोज सुबह उठ कर पैदल गंगा घाट के चक्कर लगा आना. दरअसल होता यह था कि सुबह सुबह अंकल लोग मुझे भी नींद से जगा दिया करते और फिर हमारी टोली निकल पड़ती रामरेखा घाट की ओर. रास्ते में मिट्टी के प्याले (कुल्हड़) में मिलने वाले गर्म चाय का मजा हमारे उत्साह को दोगुना कर जाता था.

गंगा नदी के तट पर घुमने के दौरान एक घटना ने हम सभी का ध्यान खिंचा. वहां कुछ बच्चे हाथों में लम्बी लम्बी रस्सियां लिए उन्हें पानी में उछालतें थे, ध्यान से देखा तो उनके अंतिम छोर पर चुंबक लगा था. जब भी वो लडकें अपनी रस्सियां पानी में फैकते थे तो एक दो सिक्के उस चुंबक में सट जाते.

असल में गंगा नदी की पूजा करते वक़्त लोग जो सिक्के नदी में आस्था से डालते थे, उन्हीं सिक्कों को अपने इस जुगाड़ से वो लडकें बाद में ले लेते थे. जब उनसे यह पूछा कि ऐसा कर के दिन भर में कितना सिक्का जमा हो जाता है? तो उन्हीं लड़कों में शामिल एक लड़का रोहित ने बताया कि करीब पचास से साठ रूपए तो आराम से आ जाता है.

वहां घाट के किनारे पूजा की सभी सामग्री और गंगा जल ले जाने के लिए प्लास्टिक के डब्बे भी मिल रहे थे. लेकिन वहां रखे एक विशेष चीज़ ने हमारी उत्सुकता बढ़ा दी. गोले में लपेटी रस्सी जैसी उस वस्तु के बारे में जब हमने दुकानदार से पूछा तो पता चला कि उसे सेहरा कहते है. मूंज घास से बने इस लम्बे रस्सी को लकड़ी के एक खूंटे के द्वारा गंगा नदी के एक किनारे से दुसरे किनारे तक बाँधा जाता है. यानी यूं कहे की माँ गंगा को हार पहनाया जाता है.

लोगों की मांगी हुई मन्नतें जब पूरी होती है तो लोग अपनी धार्मिक आस्था के कारण गंगा माँ को ये सेहरा चढ़ाते है.

तो शादी भर हमारी यही दिनचर्या बनी रही, एक सुबह तो ऐसा भी आया कि हम लोगों की देखा-देखी आंटी लोग भी घाट पर जाने को तैयार हो गयी. फिर क्या था. मस्ती डबल हो गयी. रास्ते में एक जगह दातुन ख़रीदा और फिर दांतों की सफाई करते चल पड़े घाट की ओर. अपने अंकल-आंटी और कजन्स के साथ साथ गंगा के जल से अठखेलियां करने में खूब मजा आया.

वैसे मजा तो भईया के बारात जाने में भी आया.


रास्ते में जहां मौका मिलता अपनी गाड़ी रोक कर मिट्टी के प्याली वाली चाय का आनंद लेने उतर पड़ते. वहीँ बारात वाले स्थान पहुंच कर अपने होटल में भी खूब फोटो सेशन का दौर चला.
शादी में जमकर फोटोग्राफी हुई और विवाह के कई रस्मों-रिवाजों के साथ मस्ती मजाक के कई पलों में भी मेरे कैमरे ने अपना फ़्लैश चमकाया.

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