एक्सीडेंट के बाद डॉक्टर ने महीने भर तक आराम करने को कहा था. इस हिदायत के साथ की पैरों को जल्दी ठीक करना चाहते हो, तो जैसा मैं कह रहा हूँ, वैसा ही करो. दवाइयों से भी ज्यादा फायदा तुम्हे आराम करने से मिलेगा. अब मैं क्या करता. मज़बूरी में और इस लोभ में की जल्दी से ठीक हो जाऊं, उनके कहे अनुसार बेड रेस्ट पर चला गया.
दो तीन दिनों में ही बेड पर पड़े-पड़े ऊब गया. बेड से नीचे बहुत ही मुश्किल से उतर कर चल पाता था. इसलिए पैरों के नीचे तकिया रख कर आराम करता रहता था. दिन इसी तरह जैसे तैसे गुजर रहे थें. करीब एक महीने बाद जब गर्मियों की छुट्टियां हुई तो अपने बच्चों के साथ दो दीदी भी घर आई. बच्चों की धमा-चौकड़ी के बीच लगा की हाँ अभी जान बाकी है. वर्ना बिस्तर पर कब से मुर्दा बना लेटा रहता था. हालांकि, इतने दिनों के आराम के बाद शरीर के जख्म भी भरने लगे थे और हड्डियों में आया दर्द भी कुछ कुछ कम हो रहा था. तभी अचानक घर में मनेर घुमने का प्रोग्राम बन गया. दीदी और उनके बच्चों ने कहा कि जब गांव से इतने नजदीक है तो इसे तो जरुर देखने चलना चाहिए. सब ने मुझे भी साथ चलने को कहा. इस तर्क पर की थोड़े ही न ज्यादा दूर है, और गाड़ी से तो जाना है. यहां बैठो और वहां उतर जाओ. कहीं ज्यादा दूर पैदल चलना भी नहीं पड़ेगा. वैसे मनेर शरीफ के इस दरगाह पर मैं भी कभी नहीं आया था.
अपने गांव दौलतपुर सिमरी से अगर मनेर जाना है, तो गाड़ी से मात्र 15-20 मिनट में पहुँच जाऊंगा. यह सोच मैंने भी हामी भर दी. शाम करीब 4 बजे हमलोग मनेर जाने के लिए रवाना हुए.
बहपुरा, मौली नगर, व्यासपुर आदि गांवों को पार करते, वहां की कच्ची-पक्की सड़कों से होते हुए हम आगे बढ़ रहे थे. इधर सफ़र के दौरान हम सभी न जाने आपस में कहां-कहां की बातों में मशगुल थे तो उधर बच्चे गाड़ी की खिड़की से बाहर दिख रहे ग्रामीण परिवेश को देख खूब उत्साहित हो रहे थे. खेतों में चरता जब कोई भैंस दिखता तो वो आपस में ही एक दुसरे को इशारा कर उसे दिखाते. फूस की झोपड़ी और बांस के बने घर को देख उनके मन में कौतुहल जाग उठता और पूछ बैठते की ये कैसा घर है…. इसमें कैसे लोग रहते होंगे…. पर दिखने में कितना सुन्दर है…… और हमलोग उनकी इन बातों का मजा लेते हुए खूब हंसते. इसी तरह हमारी गाड़ी कब मनेर शरीफ स्थित ऐतिहासिक मकबरे पर पहुंच गयी पता भी नहीं चला.
बिहार के पटना जिले में मनेर शरीफ एक टूरिस्ट स्पॉट है, यहां मुगलों द्वारा बनवाया गया पीर मखदूम शाह का विश्व प्रसिद्ध मकबरा है, जो मुग़ल वास्तु कला का एक उत्कृष्ट नमूना है. इसे छोटी दरगाह भी कहते हैं. मखदूम शाह ऊंचे ओहदे वाले एक नामी पीर थे. उनकी मृत्यु 1608 ई.में हुई थी. बाद में मुग़ल सम्राट जहांगीर के शासन में उस वक्त बिहार के शासक इब्राहिम खान ने मखदूम शाह दौलत के कब्र पर इस इमारत का निर्माण 1616 ई. को करवाया था. यह स्मारक, प्राचीन स्मारक तथा पुरातात्विक स्थल और अवशेष अधिनियम 1958 के अधीन महत्वपूर्ण घोषित किया गया है. इसी मकबरे में ही इब्राहिम खान को भी दफनाया गया है. यह मकबरा कम उंचाई वाले आयताकार चबूतरे पर चूनार के बलुआ पत्थर से निर्मित है. इसके मुख्य कक्ष की आतंरिक माप 9.44 मी. और बाहरी माप 10.56 मी. है. यह चारों ओर से 3.55 मी. चौड़े बरामदे से घिरा हुआ है.
इसमें कुरान की आयतें भी उकेरी गयी है. दरगाह के अंदरूनी भाग में एक खुफिया रास्ता भी है. जिसे अब लोहे के गेट से बंद कर दिया गया है. ऐसा मानना है कि इस गुप्त रास्ते से जो भी अंदर जाता है, वो फिर कभी बाहर नहीं आता. वास्तविकता चाहे जो रहे पर यहां आने वाले इस गुप्त रास्ते को जरुर देखते है.
इसी दरगाह के अंदर मन्नतें भी पूरी होती है. ऐसा विश्वास है कि यहां धागा बांधने से मन की मुरादें पूरी होती है. पूरा मकबरा देखने में बड़ा ही भव्य लगता है. इसके सामने ही एक तालाब भी है. इसमें लोग मछलियां पकड़ते है. वहीँ इसके समीप ही एक और दरगाह है, जो बड़ी दरगाह के नाम से जाना जाता है.
यहां कुछ विशेष दिनों में ऐसे लोगों का जमावड़ा लगता है जिन्हें कथित तौर पर भुत ने पकड़ा हुआ है. ऐसे टोने-टोटके पर विश्वास करने वाले अंध विश्वास को यहाँ खूब बढ़ावा मिलता है.
इस पूरे जगह के दर्शन करने के बाद ऐसा लगा मानों सूबे का ये ऐतिहासिक विरासत आज अपनी ही बेजारी पर दो-दो बूंद आसूं बहाने को विवश है. आश्चर्य यह देख कर भी लगा कि बिहार सरकार द्वारा टूरिस्ट स्पॉट का दर्जा मिलने के बावजूद यहां की इमारतें, तालाब, सभी खस्ता हाल में है. उचित देखभाल और साफ़-सफाई के अभाव में, बांस-बल्लियों के सहारे और बिना किसी सुरक्षा कर्मी के जैसे तैसे पर शान से खड़ा है.